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मंगलवार, 22 जून 2010

क़त्ल की साज़िशों से क्या हासिल्

क़त्ल की साज़िशों से क्या हासिल्।
तुमको इन काविशों से क्या हासिल्॥

इश्क़ पाबन्द हो नहीं सकता,
इश्क़ पर बन्दिशों से क्या हासिल्॥

मुझको ख़ामोश कर न पाओगे,
ज़ुल्म की वरज़िशों से क्या हासिल्॥

कौन सुनता है अब अदालत में,
दर्द की नालिशों से क्या हासिल्॥

हो नहीं सकतीं जो कभी पूरी,
ऐसी फ़रमाइशों से क्या हासिल्॥

मुझ तक आये तो कोई बात बने,
जाम की गरदिशों से क्या हासिल्॥

फ़ासले किस लिए बढाते हो,
बे वजह रंजिशों से क्या हासिल्॥
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