गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

घर के दरो-दीवार तो सब देख रहे थे.

घर के दरो-दीवार तो सब देख रहे थे.
दिल में जो ख़लिश थी उसे कब देख रहे थे.
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भीगी हुई आंखों को शिकायत थी हरेक से,
लोग उनमें जुदाई का सबब देख रहे थे.
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चेहरे से नुमायाँ था परीशानी का आलम,
आईने में हम ख़ुद को अजब देख रहे थे.
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मैं ने तो किया ज़िक्र फ़क़त लज़्ज़ते-मय का,
अहबाब मेरा हुस्ने-तलब देख रहे थे.
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हैरान थे हम कैसे हुई दिल की तबाही,
कुछ भी न बचा था वहाँ, जब देख रहे थे.
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2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

सुभान-अल्ला ----वाह जी वाह !!

admin ने कहा…

बेहतरीन गजल है। पढवाने का शुक्रिया।