घर के दरो-दीवार तो सब देख रहे थे.
दिल में जो ख़लिश थी उसे कब देख रहे थे.
*******
भीगी हुई आंखों को शिकायत थी हरेक से,
लोग उनमें जुदाई का सबब देख रहे थे.
*******
चेहरे से नुमायाँ था परीशानी का आलम,
आईने में हम ख़ुद को अजब देख रहे थे.
*******
मैं ने तो किया ज़िक्र फ़क़त लज़्ज़ते-मय का,
अहबाब मेरा हुस्ने-तलब देख रहे थे.
*******
हैरान थे हम कैसे हुई दिल की तबाही,
कुछ भी न बचा था वहाँ, जब देख रहे थे.
**************
गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008
घर के दरो-दीवार तो सब देख रहे थे.
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
2 टिप्पणियां:
सुभान-अल्ला ----वाह जी वाह !!
बेहतरीन गजल है। पढवाने का शुक्रिया।
एक टिप्पणी भेजें