रविवार, 19 अक्तूबर 2008

हवाएं हैं गरीबां-चाक, हर जानिब उदासी है.

हवाएं हैं गरीबां-चाक, हर जानिब उदासी है.
मुहब्बत के लिए पागल ज़मीं, मुद्दत से प्यासी है.
शजर पर इन बहारों में नई कोपल नहीं फूटी,
पुराने पत्तों की अब ज़िन्दगी बाक़ी ज़रा सी है.
अयाँ है चाँद के मायूस, मुर्दा, ज़र्द चहरे से,
सितारों के जहाँ में भी, कहीं, कोई, वबा सी है.
चलो इस शह्र से, ये शह्र बेगाना सा लगता है,
सुकूँ नापैद है, लोगों में बेहद बदहवासी है,
लबे-दरया भी आ जाओ तो कुछ राहत नहीं मिलती,
कि पानी में किसी मरज़े-नेहाँ की इब्तदा सी है.
खुदा को देखना है गर तो मेरे शह्र में आओ,
दिखाऊं सूरतें ऐसी, कि हर सूरत खुदा सी है।

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