गुरुवार, 9 अक्तूबर 2008

मैं बारिशों से भरे बादलों को देखता हूँ

मैं बारिशों से भरे बादलों को देखता हूँ.
शऊरे-दर्द से पुर काविशों को देखता हूँ.
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तड़पते ख़ाक पे ताज़ा गुलों को देखता हूँ.
हया से दुबकी हुई, दहशतों को देखता हूँ.
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उभर सका न कोई लफ्ज़ जिनपे आकर भी,
मैं थरथराते हुए उन लबों को देखता हूँ.
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दिलों को बाँट दिए और ख़ुद रहीं खामोश,
तअल्लुकात की उन सरहदों को देखता हूँ.
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मैं अपनी यादों की वीरानियों के गोशे में,
पुराने, आंसुओं से पुर खतों को देखता हूँ.
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न आई हिस्से में जिनके ये रोशनी, ये हवा,
चलो मैं चलके कुछ ऐसे घरों को देखता हूँ.
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जो कुछ न होके भी सब कुछ हैं दौरे-हाज़िर में,
ख़ुद अपनी आंख से उन ताक़तों को देखता हूँ।
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मैं बदहवास फ़िज़ाओं की सुर्ख आंखों में,
हुए नहीं हैं जो, उन हादसों को देखता हूँ।
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3 टिप्‍पणियां:

seema gupta ने कहा…

तड़पते ख़ाक पे ताज़ा गुलों को देखता हूँ.
धमाके देखता हूँ, दहशतों को देखता हूँ.
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उभर सका न कोई लफ्ज़ जिनपे आकर भी,
मैं थरथराते हुए उन लबों को देखता हूँ.
"very very touching poetry'
regards

Unknown ने कहा…

bahut accha ji . badhiya likha hai . badhai aap ko

फ़िरदौस ख़ान ने कहा…

मैं अपनी यादों की वीरानियों के गोशे में,
पुराने, आंसुओं से पुर खतों को देखता हूँ.
*******
न आई हिस्से में जिनके ये रोशनी, ये हवा,
चलो मैं चलके कुछ ऐसे घरों को देखता हूँ.

बहुत ही दिलकश ग़ज़ल है...