मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008

सच को सच कहिये मगर कुछ यूँ कि दिल ज़ख्मी न हो.

सच को सच कहिये मगर कुछ यूँ कि दिल ज़ख्मी न हो।
दोस्ती कायम रहे अहबाब में तलखी न हो।
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आप जो कुछ सोचते हैं बस वही सच तो नहीं,
ये भी मुमकिन है हकीकत आपने देखी न हो।
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सोचने का आपके शायद यही मेयार है.
कोई लफ़्ज़ ऐसा नहीं है जिसमें 'हटधर्मी' न हो।
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तरबियत घर से मिली है क्या इसी तहज़ीब की,
वो ज़बां आती नहीं जिसमें कोई गाली न हो।
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हो जो मुमकिन, आईने में अक्स अपना देखिये,
आपकी सूरत कहीं लादैन से मिलती न हो।

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पत्थरों से सर भी टकराएँ तो क्या हासिल हमें,
अपने हिस्से में कहाँ वो चोट जो गहरी न हो।
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आप ही फ़रमाइए मैं उंगलियाँ रक्खूं कहाँ,
जिस्म की ऐसी कोई रग है कि जो दुखती न हो।
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कैसे कर सकता है उस इन्सां से कोई गुफ्तुगू,
जिसने अपने वक़्त की आवाज़ पहचानी न हो।
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