बुधवार, 8 अक्तूबर 2008

दरीचों की सदा सुनकर भी

दरीचों की सदा सुनकर भी रातें कुछ नहीं कहतीं।
मकाँ खामोश रहता है, फ़सीलें कुछ नहीं कहतीं।

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ज़बां से हादसों का ज़िक्र अब कोई नहीं करता,
मैं कैसे मान लूँ शीशों की किरचें कुछ नहीं कहतीं।

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खमोशी से ये भर जाती हैं आकर अश्क आंखों में,
फ़क़त सन्नाटा कुछ कहता है, यादें कुछ नहीं कहतीं।

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उभरने लगती हैं एक-एक करके कितनी तस्वीरें,
जगा देती हैं ज़हनों को, मिसालें कुछ नहीं कहतीं।

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मैं अक्सर देखता हूँ अधखुली आंखों को सुब्हों की,
शबों में इनपे क्या गुजरी है, सुबहें कुछ नहीं कहतीं।

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ये इन्सां है जो ऐसे हादसों से टूट जाता है,
जो पड़ जाती हैं रिश्तों में वो गिरहें कुछ नहीं कहतीं.
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अंधेरे घोल जाती हैं ये चुपके से फिजाओं में,
किसी के रु-ब-रु मजरूह शामें कुछ नहीं कहतीं.
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4 टिप्‍पणियां:

Vivek Gupta ने कहा…

सुंदर |

Unknown ने कहा…

बहुत अच्छी गजल ।

अमिताभ मीत ने कहा…

बहुत बढ़िया.

एस. बी. सिंह ने कहा…

उभरने लगती हैं एक-एक करके कितनी तस्वीरें,
जगा देती हैं ज़हनों को, मिसालें कुछ नहीं कहतीं।

बहुत सुंदर