शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

लायी हयात आये, क़ज़ा ले चली चले / इब्राहीम ज़ौक़ [पुरानी शराब]

लायी हयात आये, क़ज़ा ले चली, चले।

अपनी खुशी न आये, न अपनी खुशी चले।

बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे,

पर क्या करें जो काम न बे-दिल्लगी चले।

हो उमरे- खिज्र भी तो कहेंगे बवक़्ते-मर्ग,

हम क्या रहे यहाँ, अभी आये अभी चले।

दुनिया ने किसका राहे-फना में दिया है साथ,

तुम भी चले चलो युंही, जबतक चली चले।

कम होंगे इस बिसात पे हम जैसे बद-क़िमार,

जो चाल हम चले वो निहायत बुरी चले।

जाते हवाए-शौक़ में हैं इस चमन से 'जोक,'

अपनी बला से बादे-सबा जब कभी चले।

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