मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008

दूसरों की आस्था पर चोट करना है अनर्थ.

दूसरों की आस्था पर चोट करना है अनर्थ.
आजका हर व्यक्ति ऐसे नित्य करता है अनर्थ.
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राम क्या थे, क्या नहीं थे, क्यों विवादों में पड़ें,
आस्था के बीच, इन प्रश्नों की चर्चा है अनर्थ.
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अर्थ सीता का बहुत पावन है मेरी दृष्टि में,
घर की सीता पर भी करना कोई शंका है अनर्थ.
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पूजता हूँ मैं उसे, दुखता है क्यों औरों का मन,
मैं ये कैसे मान लूँगा, मेरी पूजा है अनर्थ.
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फट गई धरती, कई घर धंस गए, हंसती थी मौत,
हमने जीवित रहके मलबों में ये झेला है अनर्थ.
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बेसहारा था, श्रमिक था, आज बेघर हो गया,
जागती आंखों से कितनों ने ये देखा है अनर्थ.
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वो भी मेरे साथ था कल इस भरे बाज़ार में,
उड़ गया विस्फोट में, कैसा विधाता है अनर्थ.
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6 टिप्‍पणियां:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

zaidi sahab, aap hamesha sahi aur achcha likhte hain, islaam par likhe kai lekh maine padhe hain, mujhe achche lage

महेन्द्र मिश्र ने कहा…

बहुत ही सशक्त रचना बधाई.

दीपक कुमार भानरे ने कहा…

बहुत ही सुंदर और सटीक अभिव्यक्ति. बधाई.

Unknown ने कहा…

बिलकुल बहुत ही अच्छा लिखा । धन्यवाद

रंजना ने कहा…

बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति.

Dr. Amar Jyoti ने कहा…

बहुत ही सुन्दर।