बुधवार, 29 अक्तूबर 2008

प्रोफ़ेसरी की छीछालेदर [ डायरी के पन्ने : 1]

हिन्दी ब्लॉग-जगत का एक महत्वपूर्ण ब्लॉग है 'शब्दावली'. अचानक एक दिन मेरी दृष्टि इसपर पड़ गई. सुखद आश्चर्य हुआ यह देखकर कि एक व्यक्ति जो न भाषा विज्ञान का अधिकारी विद्वान है, न किसी विश्वविद्यालय का प्रोफेसर, कितने जतन, अध्ययन और अध्यवसाय से इस कार्य को कर रहा है. मुझे परशुराम चतुर्वेदी याद आ गए. एक छोटे से जनपद के वकील. संत साहित्य पर इतना बड़ा काम कर गए, कि हिन्दी का अध्येता आज भी उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता. मैं ने श्री अजित वाडनेकर को चिट्ठी लिखी और तत्काल जो कुछ समझ में आया अपने कुछ विचार भी भेज दिए. मुझे उस समय और भी आश्चर्य हुआ जब श्री अजित का अचानक फोन आया और मेरे कानों में आभार के शब्द गूंजे. सोचने लगा कि विश्वविद्यालय में अंडतीस वर्ष के अध्यापन काल में कितने महानुभावों ने मुझसे क्या-क्या लाभ उठाया और उसका खूब-खूब उपयोग भी किया, किंतु किसी ने कभी आभार प्रदर्शन नहीं किया. शब्दावली के साथ तो मैं ने ऐसा कुछ नहीं किया. फिर आभार किस बात का.
थोड़े से अंतराल के बाद जब मैंने शब्दावली के दरवाजे पर दुबारा दस्तक दी, तो देखता क्या हूँ कि मेरी चिट्ठी भी श्री वाडनेकर के लेख के पहलू में विराजमान है और नीचे बताया गया है कि मैं मुस्लिम विश्वविद्यालय में रीडर के पद से सेवा मुक्त हुआ. मैं यंत्रवत जब यह चिट्ठी लिखकर भेज चुका कि मैं रीडर नहीं प्रोफेसर था तो मुझे अपने ही कृत्य पर हँसी आ गई. कहीं न कहीं मैं आज भी अन्तश्चेतन में प्रोफ़ेसरी को बहुत बड़ी चीज़ समझता हूँ. कुछ ऐसा ही आभास हुआ मुझे.
मैं लौट गया अपने बचपन और अपनी युवावस्था की ओर. मेरे शहर मिर्जापुर में मेरे मकान से दो-एक मकान छोड़कर बी.एल.जे. इंटर कालेज के दो अध्यापक रहते थे. श्री आशुतोष बेनर्जी और श्री मुख्तार अहमद. दोनों अंग्रेज़ी पढाते थे और दोनों प्रोफेसर कहे जाते थे. यह बात 1956-57 की है, जब मैं इंटर फाइनल में था. श्री मुख्तार अहमद उर्दू में अफ़साने लिखते थे जो उस समय की अत्यधिक लोकप्रिय पत्रिका 'बीसवीं सदी' में छपते थे. श्री मुख्तार अहमद के नाम के पहले प्रोफेसर शब्द ज़रूर होता था.
दो वर्ष बाद शहर में मुसलमानों का एक धार्मिक जलसा हुआ- जल्सए-मीलादुन्नबी. बड़े-बड़े इश्तेहार लगे.उसपर एक नाम छपा था प्रोफेसर अब्दुल कय्यूम और लिखा गया था कि ये सज्जन मुस्लिम विश्वविद्यालय से पधार रहे हैं. अब इसे क्या कहियेगा, अपने गुरु डॉ. राकेश गुप्त के आदेश पर जब मैंने 1962 में अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पी-एच.डी. में एडमीशन लिया तो पता चला कि पूरे विश्वविद्यालय में मुश्किल से पचीस-तीस प्रोफेसर हैं. श्री कय्यूम यहीं विश्वविद्यालय में हाई स्कूल में पढाते हैं. आंखों पर पड़े कुछ जले साफ़ हुए. प्रोफेसर शब्द का आतंक नए रूप में दिमाग में प्रवेश कर गया. सामान्य रूप से यह प्रोफेसर स्थायी विभागाध्यक्ष भी होता था और विभाग में उसकी इच्छा के विरुद्ध पत्ता भी नहीं हिल सकता था. शोध छात्रों की नियति अल्लाह मियाँ नहीं लिखते थे, इसी प्रोफेसर के कलम से लिखी जाती थी.
समय के साथ मूल्यों का बदलना सहज है. यू.जी.सी. ने शिक्षा संस्थाओं में प्रोमोशन के दरवाज़े खोल दिए. नाम था ‘मेरिट प्रोमोशन’. किंतु मेरिट का अर्थ यह था कि कौन कितना सीनिअर या जुगाडू है.धडाधड प्रोफेसर होने लगे. जिसने बहुत लिखा-पढ़ा वह भी प्रोफेसर हुआ जिसने कुछ नहीं लिखा वह भी प्रोफेसर बनाया गया. फिर डिग्री कालेजों में तो प्रोफेसर का पद न होते हुए भी सभी अध्यापक धड़ल्ले से प्रोफेसर कहते और लिखते थे. यह स्थिति 1975-76 के बाद सामान्य हो गई थी. मुझे डॉ. इन्द्रनाथ मदान का प्रोफ़ेसरी का इंटरव्यू याद आ गया जो उन्होंने स्वयं बताया था. उनसे पूछा गया 'आप क्यों समझते हैं कि आप इस पद के लिए उपयुक्त हैं ? डॉ. मदान ने उत्तर दिया-'मुझसे अधिक उपयुक्त तो कोई है ही नहीं. प्रोफेसर होने के लिए तीन बातें ज़रूरी है. पहली यह कि उसने पढ़ना-लिखना छोड़ दिया हो, तो मैं यह काम पहले ही कर चुका हूँ. दूसरी ये कि उसके पास कार और बंगला हो, तो मेरे पास वो भी है. तीसरी यह कि वो सेमिनारों और सम्मेलनों की अध्यक्षता करता हो, लिखित भाषण कभी न देता हो और शोध-पत्र वाचन से मुक्त हो. मुझमें ये तीनों बातें हैं. इस इंटरव्यू के बाद मदान जी प्रोफेसर बना दिए गए.
यू.जी. सी. का नाटक आज भी जारी है. कागज़ की खानापूरी आज भी होती है. इतने शोध-पत्र छपे हों, इतना रिसर्च-वर्क हो. पेपर कहाँ छपे हैं, कोई नहीं देखता, रिसर्च किस स्तर की है कोई नहीं पूछता. प्रोफ़ेसरी की यह छीछालेदर यू.जी.सी. को दिखायी नहीं देती. स्थिति यह हो गई है कि विश्वविद्यालयों में प्रवक्ता नहीं दिखायी देते, रीडर दो-चार मिल जाते हैं और प्रोफेसरों की भरमार है.
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1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

'शब्दावली' का लिंक भी लगा दें, तो सुविधा रहेगी!!