शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2008

दुश्मनी हिन्दी से थी

दुश्मनी हिन्दी से थी, मारे गए मासूम लोग।

कैसे इस सूबा परस्ती से न हों मगमूम लोग।

एक जानिब हैं लक़ो-दक़ खुशनुमां उम्दा मकां,

दूसरी जानिब हैं खपरैलों से भी महरूम लोग।

एक अरसे से हिरासत में हैं कितने बेगुनाह,

क्या खता थी, कर न पाये आज तक मालूम लोग।

ज़िन्दगी की तेज़गामी का नहीं देते जो साथ,

ज़िन्दगी में ही समझते हैं उन्हें मरहूम लोग।

खुदसे जितना प्यार करते हैं, करेंगे मुझसे भी,

जान लेंगे जब मेरे अशआर का मफ़हूम लोग।

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