शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2008

दश्ते-वफ़ा में प्यास का आलम अजीब था. / करम हैदरी

दश्ते-वफ़ा में प्यास का आलम अजीब था.
देखा तो एक दर्द का दरया करीब था.
*****
गुज़रे जिधर-जिधर से तमन्ना के क़ाफ़ले,
हर-हर क़दम पे एक निशाने-सलीब था.
*****
कुछ ऐसी मेहरबाँ तो न थी हम पे ज़िन्दगी,
क्यों हर कोई जहाँ में हमारा रक़ीब था.
*****
क्या-क्या लहू से अपने किया हमने सुर्खरू,
इस दौर के नगर को जो दिल के करीब था.
*****
अपना पता तो उसने दिया था हमें करम,
वो हमसे खो गया ये हमारा नसीब था.
*******************

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

@अपना पता तो उसने दिया था हमें करम, वो हमसे खो गया ये हमारा नसीब था.

बहुत खूब.