शनिवार, 4 अक्तूबर 2008

बिखरता फूल जैसे शाख पर / सबा ज़फ़र

बिखरता फूल जैसे शाख पर अच्छा नहीं लगता।

मुहब्बत में कोई भी उम्र भर अच्छा नहीं लगता।

मैं उसको सोचता क्यों हूँ अगर नुदरत नहीं उसमें,

मैं उसको देखता क्यों हूँ अगर अच्छा नहीं लगता।

वो जिसकी दिलकशी में गर्क रहना चाहता हूँ मैं,

वही मंज़र मुझे बारे-दिगर अच्छा नहीं लगता।

किसी सूरत तअल्लुक़ की मसाफ़त तय तो करनी है,

मुझे मालूम है तुझको सफर अच्छा नहीं लगता।

हज़ार आवारगी हो बेठिकाना ज़िन्दगी क्या है,

वो इन्सां ही नहीं है जिसको घर अच्छा नहीं लगता।

वो चाहे फ़स्ल पक जाने पे सारे खेत चुग जाएँ,

परिंदों को करूँ बे-बालो-पर, अच्छा नहीं लगता।

वसीला रास्ते का छोड़कर मंज़िल नहीं मिलती,

खुदा अच्छा लगे क्या जब बशर अच्छा नहीं लगता।

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1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

कमाल है सबा ज़फर साहेब का:

हज़ार आवारगी हो बेठिकाना ज़िन्दगी क्या है,
वो इन्सां ही नहीं है जिसको घर अच्छा नहीं लगता।


-क्या उम्दा बात की है.