गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

देख लो ख्वाब मगर ख्वाब का चर्चा न करो./ कफ़ील आज़र

देख लो ख्वाब मगर ख्वाब का चर्चा न करो.
लोग जल जायेंगे सूरज की तमन्ना न करो.
वक़्त का क्या है किसी पल भी बदल सकता है,
हो सके तुमसे तो तुम मुझ पे भरोसा न करो.
किरचियाँ टूटे हुए अक्स की चुभ जायेंगी,
और कुछ रोज़ अभी आइना देखा न करो.
अजनबी लगने लगे ख़ुद तुम्हें अपना ही वुजूद,
अपने दिन-रात को इतना भी अकेला न करो.
ख्वाब बच्चों के खिलौनों की तरह होते हैं,
ख्वाब देखा न करो, ख्वाब दिखाया न करो.
बेखयाली में कभी उंगलियाँ जल जायेंगी,
राख गुज़रे हुए लम्हों की कुरेदा न करो.
मोम के रिश्ते हैं गर्मी से पिघल जायेंगे,
धूप के शह्र में 'आज़र' ये तमाशा न करो.
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1 टिप्पणी:

अमिताभ मीत ने कहा…

गज़ब. हर शेर लाजवाब.