उसे शिकायत है
कि मेरे भीतर 'मैं' बहुत अधिक है।
वह शायद यह नहीं देख पाया,
कि मेरा यह 'मैं'
केवल मेरा नहीं है,
आपका, उसका, सभी का है।
जब कोई दुस्साहस करके
सबके 'मैं' को समेट लेता है अपने 'मैं' में,
तो असह्य हो जाता है उसके साथ जीवन
और जब
अपने 'मैं' को बाँट देता है कोई
सबके 'मैं' में
तो जन्म लेता है एक विश्वास
मुस्कुराने लगता है घर-आँगन।
****************


कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें