शनिवार, 4 अक्तूबर 2008

जड़ें दरख्तों की मज़बूत थीं

जड़ें दरख्तों की मज़बूत थीं, हिला न सकीं.
ये आंधियां कोई आफत भी इनपे ढा न सकीं.
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हया के तायरों के आशियाँ थे आंखों में,
जभी तो मिलने पे ये खुलके मुस्कुरा न सकीं.
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हमारे घर में ग़मों के निगाहबां थे खड़े,
बहारें आना बहोत चाहती थीं आ न सकीं.
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तुम्हारी यादें मुझे ले गई थीं बचपन में,
मगर वो आजके हालात को छुपा न सकीं.
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शिकंजे कस दिए थे हमने आरजूओं के,
गिरफ़्त सख्त थी इतनी कि फडफडा न सकीं.
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गुलों को अपने लहू से जो बख्शते थे हयात,
वो नगमे बुलबुलें इस दौर में सुना न सकीं.
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मुसीबतों ने मेरे घर में जब क़दम रक्खा,
पसंद आया घर ऐसा कि फिर वो जा न सकीं.
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2 टिप्‍पणियां:

महेन्द्र मिश्र ने कहा…

जड़ें दरख्तों की मज़बूत थीं, हिला न सकीं.
ये आंधियां कोई आफत भी इनपे ढा न सकीं.
bahut sundar rachana . abhaar fatima ji.

Udan Tashtari ने कहा…

तुम्हारी यादें मुझे ले गई थीं बचपन में,
मगर वो आजके हालात को छुपा न सकीं.


--गज़ब भाई!! बहुत ही उम्दा!!