गुरुवार, 23 अक्तूबर 2008

काश मैं तेरे हसीं हाथ का कंगन होता / वसी शाह

काश मैं तेरे हसीं हाथ का कंगन होता,
तू बड़े प्यार से, चाओ से बड़े मान के साथ,
अपनी नाज़ुक सी कलाई में चढाती मुझको,
और बेताबी से फुरक़त के खिजां लम्हों में,
तू किसी सोच में डूबी जो घुमाती मुझको,
मैं तेरे हाथ की खुशबू से महक सा जाता,
जब कभी जोश में आकर मुझे चूमा करती,
तेरे होंटों की मैं हिद्दत से दाहक सा जाता।
रात को जब भी तू नींदों के सफर पर जाती,
मैं तेरे कान से लगकर कई बातें करता,
तेरी जुल्फों को तेरे गाल को चूमा करता।
जब भी तू बन्दे-क़बा खोलती मैं खुश होकर,
अपनी आंखों को तेरे हुस्न से खीरा करता.
मुझको बेताब सा रखता तेरी चाहत का नशा,
मैं तेरी रूह के गुलशन में महकता रहता.
मैं तेरे जिस्म के आँगन में खनकता रहता.
कुछ नहीं तो यही बेनाम सा बंधन होता.
काश मैं तेरे हसीं हाथ का कंगन होता।
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