[50]
शोभित कर नवनीत लिए.
घुटुरुनि चलत रेनू तन मंडित, मुख दधि लेप किए.
चारु कपोल, लोल लोचन, गोरोचन तिलक दिए.
लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन, मादक मधुहिं पिए.
कठुला कंठ, बज्र, केहरि-नख, राजत रुचिर हिये.
धन्य 'सूर', एकौ पल इहिं सुख, का सतकल्प जिए.
फबते हैं श्याम हाथ में मक्खन लिए हुए.
लिपटी है धूल जिस्म में चलते हैं घुटनियों,
मुंह को दही का लेप है आरास्ता किए.
दिलकश हैं गाल, आंखों की शोखी है दीदा-जेब,
माथे पे खुशबुओं का तिलक हैं दिए हुए.
चहरे के दोनों सिम्त हैं काली घनी लटें,
भंवरे हों जैसे फूलों के जामो-सुबू पिए.
नाखुन हैं शेर के जो बजर बट्टूओं के साथ,
माला गले की, हुस्न को देती है ज़ाविए.
ऐ 'सूर' इस खुशी का है इक लमहा भी बहोत,
नाहक कोई हज़ार बरस किस लिए जिए.
[51]
मैया ! मैं नहिं माखन खायौ.
ख्याल परै ये सखा सबै मिलि, मेरे मुख लपटायौ.
देखि तुही सींके पर भाजन, ऊंचे धरि लटकायौ.
हौं जु कहत नान्हें कर अपने, मैं कैसे करि पायौ.
मुख दधि पोंछ, बुद्धि इक कीन्हीं, दोना पीठि दुरायौ.
डारि सोंटि, मुसकाइ जसोदा, स्यामहि कंठ लगायौ.
लाल बिनोद मोद मन मोह्यौ, भक्ति प्रताप दिखायौ.
'सूरदास' जसुमति कौ यह सुख, सिव बिरंचि नहिं पायौ.
माँ! मैं सच कहता हूँ, मैंने नहीं खाया मक्खन.
हाँ ख़याल आता है, अहबाब ने मिलकर बाहम,
था शरारत में मेरे मुंह पे लगाया मक्खन.
तुम ही ख़ुद देखो कि लटकाती हैं ऊंचाई पर,
मटकियाँ ग्वालनें, छींके पे जतन से रख कर,
अपने इन नन्हें से हाथों से बताओ तो भला,
कैसे मैं इतनी बलंदी पे पहोंच सकता हूँ.
कर लिया साफ़, लगा था जो दही होंटों पर,
और चालाकी से दोने को छुपाया पीछे.
फ़ेंक कर बेत, जशोदा ने खुशी से बढ़कर,
श्याम को सीने से लिपटा लिया बादीदए-तर.
'सूर' हासिल है जो इस वक़्त जशोदा को खुशी,
देवताओं ने भी सच पूछिए पायी न कभी.
[52]
मैया ! मोहिं दाऊ बहुत खिझायौ.
मोसों कहत, मोल कौं लीन्हौं, तू जसुमति कब जायौ.
कहा करौं इहि रिसि के मारे, खेलन हौं नहिं जात.
पुनि-पुनि कहत, कौन है माता, को है तेरौ तात.
गोरे नन्द, जसोदा गोरी, तू कत स्यामल गात.
चुटकी दै-दै ग्वाल नचावत, हंसत, सबै मुसकात.
तू मोही कौं मारन सीखी, दाउहिं कबहूँ न खीझै.
मोहन मुख रिस की यह बातैं, जसुमति सुनि-सुनि रीझै.
सुनहु कान्ह! बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत.
'सूर' स्याम मोहि गोधन की सौं, हौं माता तू पूत.
माँ! मुझे करते हैं बलराम परीशान सदा.
कहते हैं मुझसे, तुझे मोल है ले आया गया.
बत्न से कब तू जशोदा के हुआ है पैदा.
क्या करूँ मैं कि इसी खफगी से आजिज़ आकर.
खेलने के लिए साथ उनके नहीं जा पाता.
पूछते रहते हैं रह-रह के बराबर मुझसे.
कौन अम्मा है तेरी, कौन है तेरा बाबा.
नन्द भी गोरे हैं, गोरी हैं जशोदा भी बहोत.
सांवला रंग तेरे जिस्म का फिर कैसे हुआ.
चुटकी ले-ले के सभी ग्वाल नचाते हैं मुझे.
हँसते हैं मुझपे, कि इसमें उन्हें आता है मज़ा.
तूने सीखा है फ़क़त मेरी पिटाई करना.
भाई पर क्यों नहीं आता कभी तुझको गुस्सा.
मुंह से मोहन के, ये खफगी भरी बातें सुनकर,
दिल जशोदा का, खुशी ऐसी मिली, झूम उठा.
प्यार से बेटे को लिपटा के जशोदा ने कहा.
गौर से श्याम सुनो, पूछो न बलभद्र है क्या.
जानते सब हैं कि पैदाइशी शैतान है वो,
बस इधर की है उधर बात लगाता फिरता.
'सूर' के श्याम! मैं गोधन की क़सम खाती हूँ,
मैं ही अम्मा हूँ तेरी, तू है मेरा ही बेटा.
[53]
बृंदाबन देख्यो नन्द नंदन, अतिहि परम सुख पायौ.
जहँ-जहँ गाय चरति ग्वालनि संग, तह-तहं आपुन धायौ.
बलदाऊ मोकों जनि छाँडौ़, संग तुम्हारे ऐहौं.
कैसेहु आज जसोदा छाँड्यो, काल्हि न आवन पैहौं.
सोवत मोकौ टेर लेहुगे, बाबा नन्द दुहाई.
'सूर' स्याम बिनती करि बल सौं, सखन समेत सुनाई.
बृंदाबन का देखके मंज़र, नन्द के बेटे ने सुख पाया.
जहाँ-जहाँ भी ग्वालों के संग, गायें चरती दिखलाई दीं.
वहाँ-वहाँ खुश हो-होकर ख़ुद, खुश-ज़ौक़ी से दौड़ के आया.
बलदाऊ मुझको मत छोड़ो, साथ तुम्हारे आऊंगा मैं,
आज किसी सूरत से, जशोदा माँ ने इजाज़त दी है मुझको.
कल तुमने गर छोड़ दिया तो, यहाँ न आने पाऊंगा मैं.
सोते से भी जगा लेना तुम, बाबा नन्द का वास्ता तुमको,
'सूरदास' बलराम से मिन्नत करके श्याम ने सबको रिझाया.
[54]
जसुमति दौरि लिए हरि कनियाँ.
आजु गयौ मेरौ गई चरावन, हौं बलि जाऊं निछनियाँ.
मो कारन कछु आन्यो है बलि, बन फल तोरि नन्हैया.
तुमहि मिले मैं अति सुख पायौ, मेरे कुंवर कन्हैया.
कछुक खाहु जो भावै मोहन, दै री माखन रोटी.
'सूरदास' प्रभु जीवहु जुग-जुग, हरि हलधर की जोटी.
श्याम को दौड़कर गोद में भर लिया.
प्यार से माँ जशोदा ने फिर ये कहा,
जाके गायें चरा लाया बेटा मेरा.
क्यों न हो जाऊं मैं आज इसपर फ़िदा.
लूँ बालाएं, उतारूं मैं सदक़ा तेरा.
ऐ मेरे लाल! मेरे लिए भी कोई,
तोड़कर नन्हे हाथों से जंगल का फल,
अपने हमराह लेकर तू आया है क्या.
मिल गया तू मुझे हर खुशी मिल गई,
मेरा नन्हाँ कुंवर है कन्हाई मेरा.
थक गया होगा तू, भूक होगी लगी,
जो भी अच्छा लगे खा ले ऐ महलक़ा.
खादिमा है कहाँ, देर करती है क्यों,
मेरे मोहन को मक्खन से रोटी खिला.
'सूर' कहते हैं बस यूँ ही क़ायम रहे,
ऐ खुदा! श्याम-हलधर की जोड़ी सदा.
*********************
मंगलवार, 28 अक्तूबर 2008
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
1 टिप्पणी:
बहुत अच्छा प्रयास। थोड़ी और काव्यात्मकता का पुट हो तो आनन्द ही आ जाए। मैं पहले आपके यहां पत्रकार था और अमुवि बीट ही कवर करता था लेकिन संयोग से मुलाकात नहीं हो पाई। जैदी साहिब कभी आना हुआ तो आपसे मुलाकात करूंगा।
एक टिप्पणी भेजें