मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008

कहाँ की गूँज दिले-नातवाँ में / अहमद मुश्ताक़

कहाँ की गूँज दिले-नातवाँ में रहती है।
कि थरथरी सी अजब जिस्मो-जाँ में रहती है।
मज़ा तो ये है कि वो ख़ुद तो है नये घर में,
और उसकी याद पुराने मकाँ में रहती है।
अगरचे उससे मेरी बेतकल्लुफ़ी है बहोत,
झिजक सी एक मगर दर्मियाँ में रहती है।
पता तो फ़स्ले-गुलो-लाला का नहीं मालूम,
सुना है कुर्बे-दयारे-खिज़ाँ में रहती है।
मैं कितना वहम करूँ लेकिन इक शुआए-यकीं,
कहीं नवाहे-दिले - बद-गुमाँ में रहती है।
हज़ार जान खपाता रहूँ मगर फिर भी,
कमी सी कुछ मेरे तर्जे-बयाँ में रहती है।
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