दश्ते-वफ़ा में प्यास का आलम अजीब था.
देखा तो एक दर्द का दरया करीब था.
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गुज़रे जिधर-जिधर से तमन्ना के क़ाफ़ले,
हर-हर क़दम पे एक निशाने-सलीब था.
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कुछ ऐसी मेहरबाँ तो न थी हम पे ज़िन्दगी,
क्यों हर कोई जहाँ में हमारा रक़ीब था.
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क्या-क्या लहू से अपने किया हमने सुर्खरू,
इस दौर के नगर को जो दिल के करीब था.
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अपना पता तो उसने दिया था हमें करम,
वो हमसे खो गया ये हमारा नसीब था.
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शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2008
दश्ते-वफ़ा में प्यास का आलम अजीब था. / करम हैदरी
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1 टिप्पणी:
@अपना पता तो उसने दिया था हमें करम, वो हमसे खो गया ये हमारा नसीब था.
बहुत खूब.
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