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शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

परिंदों की ज़बाँ पहले के दानिशवर समझते थे.

परिंदों की ज़बाँ पहले के दानिशवर समझते थे.
परिंदे भी हमारी गुफ्तगू अक्सर समझते थे.
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वो फ़नकारा थी, बांसों पर तनी रस्सी पे चलती थी,
तमाशाई थे हम और उसको पेशा-वर समझते थे.
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शजर को आँधियों की साजिशों का इल्म था शायद,
कि पत्ते तक हवाओं के सभी तेवर समझते थे.
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हकीकत में हमारे जैसा इक इन्सान था वो भी,
मगर अखलाक था ऐसा कि जादूगर समझते थे.
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वो सहरा शह्र की नब्जों में अक्सर साँस लेता था,
हमीं नादाँ थे उसको शह्र के बाहर समझते थे.
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छतें, आँगन दरो-दीवार सब थे खंदा-ज़न हम पर,
हमें हैरत है, हम क्यों उसको अपना घर समझते थे.
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