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शनिवार, 18 अक्तूबर 2008

रात सूली पर टंगी थी, दिन का चेहरा था निढाल.

रात सूली पर टंगी थी, दिन का चेहरा था निढाल.
कर दिया मुझको मेरे हालात ने ऐसा निढाल.
आजतक किरदार क्या था मेरा, किसको फ़िक्र थी,
कह के मुजरिम क़ैद में रक्खा गया तनहा निढाल.
रोज़ो-शब घटता रहा पानी इसी सूरत अगर,
देखना तुम एक दिन हो जायेगा दरिया निढाल।

आज बच्चों के लिए दाना न यकजा कर सका,

लौटकर अपने नशेमन में परिंदा था निढाल।

एक हँसता-मुस्कुराता घर था जो कल तक, उसे
क्या हुआ, क्यों हो गया सब बांकपन उसका निढाल.
शह्र की ये शोरिशों से पुर फ़िज़ा, ये दहशतें,
लोग आते हैं नज़र कुछ यूँ कि हों गोया निढाल.
वो चमक, वो तेज़-रफ़तारी कहाँ गुम हो गयी,
डूबता सूरज हमें लगता है क्यों ख़स्ता, निढाल.
ज़ह्न थक कर चूर हो जाता है अक्सर शाम तक,
सुब्ह-दम जैसे नज़र आती हो दोशीज़ा निढाल,
आफ़ियत जाफ़र इसी में है, रहो ख़ामोश तुम,
वरना कर देगी तुम्हें ये आजकी दुनिया निढाल.
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