है जुस्तुजू कि खूब से है खूबतर कहाँ।
अब देखिये ठहरती है जाकर नज़र कहाँ।
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यारब इस इख्तिलात का अंजाम हो बखैर,
था उसको हमसे रब्त, मगर इस कदर कहाँ।
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इक उम्र चाहिए कि गवारा हो नैशे-इश्क,
रक्खी है आज लज़्ज़ते-ज़ख्मे-जिगर कहाँ।
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हम जिस पे मर रहे हैं वो है बात ही कुछ और,
आलम में तुझसे लाख सही, तू मगर कहाँ।
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होती नहीं कुबूल दुआ तरके-इश्क की,
दिल चाहता न हो तो ज़बाँ में असर कहाँ।
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'हाली' निशाते-नग्मओ-मय ढूंढते हो अब,
आये हो वक्ते-सुब्ह रहे रात भर कहाँ।
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