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बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

नदियाँ दरिया से जाकर जिस वक़्त मिली होंगी।

नदियाँ दरिया से जाकर जिस वक़्त मिली होंगी।
अपनी किस्मत पर इठलाकर झूम उठी होंगी।
किरनें चाँद की घर के आँगन से कुछ कहती हैं.
फूलों ने वो राज़ की बातें खूब सुनी होंगी।
मयखाने में रिन्दों की आंखों में आंसू हैं,
साक़ी की गुस्ताख़ निगाहें उनपे हँसी होंगी।
उस घनश्याम ने ओट में लेकर चाँद सी राधा को,
आंसू की बूँदें रुखसारों से पोंछी होंगी।
रात की सारी रोशनियाँ ही क़ातिल होती हैं.
परवानों की लाशें सुब्हों ने देखी होंगी।
ठंडी-ठंडी नर्म हवाएं अपनी पलकों से,
दिल की राहों के कांटे चुनकर रोई होंगी।

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