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मंगलवार, 28 अक्तूबर 2008

रोशनी लेके अंधेरों से लड़ोगे कैसे

रोशनी लेके अंधेरों से लड़ोगे कैसे.
ख़ुद अंधेरों में हो ये देख सकोगे कैसे।
ज़ाफ़रानी नज़र आते हैं जो गुलहाए-चमन.
उनमें है ज़ह्र, तो ये बात कहोगे कैसे.
चाँद गहनाया है, ठिठरी सी नज़र आती है रात,
मन्ज़िलें दूर हैं, राहों में चलोगे कैसे.
घर के फूलों से कहो सीखें न काँटों का चलन,
वरना फिर ऐसे बियाबाँ में रहोगे कैसे.
यूँ ही अल्फ़ाज़ में अंगारे अगर भरते रहे,
शोले भड़केंगे हरेक सम्त, बचोगे कैसे.
वक़्त लग जाता है किरदार बनाने में बहोत,
इतना गिर जाओगे नीचे तो उठोगे कैसे।
आइना सामने रख देगा ज़माना जिस रोज़,
अपनी तस्वीर पे सोचो कि हंसोगे कैसे.
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