ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / दर्द ऐसा है कि लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / दर्द ऐसा है कि लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

दर्द ऐसा है कि होता नहीं ज़ख्मों का शुमार।

दर्द ऐसा है कि होता नहीं ज़ख्मों का शुमार।

कौन कर सकता है टूटे हुए रिश्तों का शुमार।

*******

यादें आती है तो ये सिलसिला थमता ही नहीं,

ज़हने-इन्सान से मुमकिन नहीं यादों का शुमार।

*******

ज़िन्दगी मिस्ल किताबों के है पढ़कर देखो,

इस कुतुबखाने में होता नहीं सफ़हों का शुमार।

*******

तुम गिरफ़्तारे-बला कब हो, तुम्हें क्या मालूम,

किस तरह होता है नाकर्दा गुनाहों का शुमार।

*******

इह्तिजाजात में पैसों की है ताक़त का नुमूद,

भीड़, बस करती है मासूम गरीबों का शुमार।

*******

पाँव के आबलों में कूवते-गोयाई नहीं,

किसको है फ़िक्र, करे राह के काँटों का शुमार।

**************