टुकड़े-टुकड़े सुबह हुई था होश कहाँ।
दामन में थी आग लगी था होश कहाँ॥
उसके दर पर सज्दा करने आया था,
पेशानी फिर उठ न सकी था होश कहाँ॥
वो आमाल तलब कर बैठा बेमौक़ा,
फ़र्द थी बिल्कुल ही सादी था होश कहाँ॥
दिल के दाग़ नुमायँ हो कर बोल उठे,
बरत न पाया ख़ामोशी था होश कहाँ॥
ज़ख़्मों की तेज़ाबीयत का था एहसास,
चोट थी हल्की या गहरी था होश कहाँ॥
********
3 टिप्पणियां:
ham padte hi rahe ki hosh kho bahte ki or kab khatm ho gai pyari si gazal
bahut acha
shkaher kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/
वो आमाल तलब कर बैठा बेमौक़ा,
फ़र्द थी बिल्कुल ही सादी था होश कहाँ॥
bahut khoob sir...
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
ज़ख़्मों की तेज़ाबीयत का था एहसास,
चोट थी हल्की या गहरी था होश कहाँ॥
********
बहुत गहरी चोट है, दिखता कम है दुखता ज्यादा है
बहुत खूब
एक टिप्पणी भेजें