सोमवार, 12 अप्रैल 2010

कल्पना माँ की मैं कर लेता हूं

कल्पना माँ की मैं कर लेता हूं।
ज़िन्दगी फूलों से भर लेता हूं॥

कैसी चिन्ताएं हैं कैसा दुख है,
कुछ ज़रा दिल की ख़बर लेता हूं॥

जब घनी धूप से घबराता हूं,
किसी साये में ठहर लेता हूं॥

जिसमें बस मेरा अकेलापन हो,
चुन के मैं ऐसी डगर लेता हूं॥

उम्र के साथ ढलानों की तरफ़,
मैं भी चुप-चाप उतर लेता हूं॥

कितनी अच्छी है ग़ज़ल की दुनिया,
वो सँवारे तो सँवर लेता हूं॥
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