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शनिवार, 8 नवंबर 2008

शैलेश ज़ैदी के दोहे

देख लिए हमने सभी, शीत-ग्रीष्म के रूप।
जीवन के अवसान में, क्या छाया क्या धूप।
सोने का मृग ले गया, रामचंद्र को दूर।
सुनकर रावण-याचना, सीता थीं मजबूर।
उसका निर्णय था अडिग, जैसे अंगद पाँव।
इस निर्णय को देखकर, चकित था सारा गाँव।
मदिरा पीकर मस्त था, खो बैठा था होश।
आज समय की चाल में, नहीं था कोई जोश।
बैठी है एकांत में, ममता खाकर चोट।
जाने कैसी कब पड़े, राजनीति की गोट।
रंग-मंच संसद-भवन, सांसद नाटक-पात्र।
लक्ष्मी नाची झूमकर, नग्न हुए कुछ गात्र।
समझौता परमाणु का, अमेरिका के साथ।
बुश मनमोहन खुश हुए , मिले हाथ से हाथ।
मनमोहन की बांसुरी, बजी सोनिया संग।
दिल्ली के आकाश पर, छाया ब्रज का रंग।
'साध्वी जी' का सिंह से,कभी न था अलगाव।
संकट आते देखकर, खेल गये वे दाव।
खोज-बीन ऐसी हुई, तर्क हो गये ढेर।
अब आए हैं सामने, जब हो गई अबेर।
'ऊमा जी' के पैतरे, तीखे थे निःशंक।
जागी उस पल भाजपा, चुभे कई जब डंक।
दोशारोपी साध्वी, हुई पुरोहित साथ।
प्रभु बैठे हैं मौन क्यों, धरे हाथ पर हाथ।
मुसलमान निकृष्ट हैं, हिन्दू हैं उत्कृष्ट।
नित विज्ञापित हो रही, यह धारणा विशिष्ट।
सावरकर के गर्भ से, जन्मा था 'हिंदुत्व'।
बहुसंख्यक मस्तिष्क ने, इसको दिया प्रभुत्व ।
चकित रह गया देख कर, धर्मों का यह रूप।
कलजुग के सब देवता, जैसे अँधा कूप।
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