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बुधवार, 5 नवंबर 2008

अब कहाँ मज़हब, कहाँ इंसानियत, कैसा खुलूस.

अब कहाँ मज़हब, कहाँ इंसानियत, कैसा खुलूस.
अब तो आगोशे-सियासत में है हम सब का खुलूस.
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आ गई है अब खुदाई भी उसीके हाथ में,
उसकी बातों में किसी को मिल नहीं सकता खुलूस.
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आज कोई शख्स भी अखलाक का क़ायल नहीं,
आज कुछ कच्चे मकानों में है पोशीदा खुलूस.
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खोट दिल में है तो क्या, मिलिए मुहब्बत से ज़रूर,
कुछ न कुछ तो काम आ ही जायेगा झूटा खुलूस.
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मेरा साया भी मुझे दुश्मन नज़र आने लगा.
खौफ के माहौल में है किस क़दर अनक़ा खुलूस.
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दोस्तों ने भी नज़र-अंदाज़ मुझको कर दिया,
लेके निकला जब सरे-बाज़ार मैं तनहा खुलूस.
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वो नहीं मिलता शिकायत इसकी अब मैं क्या करूँ,
आज भी उसके खतों में उसका है लिपटा खुलूस.
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