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गुरुवार, 6 नवंबर 2008

मैं सवालों से घिरा था, और लब खामोश थे.

मैं सवालों से घिरा था, और लब खामोश थे.
जिंदगी ठहरी हुई थी, रोजो-शब खामोश थे.
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उसके मयखाने का जाने कैसा ये दस्तूर था,
जाम रिन्दों के थे खाली, फिर भी सब खामोश थे.
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शख्सियत उसकी थी कुछ ऐसी कि उसके सामने,
बुत की सूरत सब खड़े थे बा-अदब, खामोश थे.
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ऐसे बे-हिस भी न थे हम, हाँ बहोत मजबूर थे,
जाने क्यों लोगों ने समझा बे-सबब खामोश थे.
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हमको ऊंची ज़ात वालों ने कुचल कर रख दिया,
लब हिला सकते न थे, बेबस थे, जब खामोश थे.
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चाँदनी के रक्से-बिस्मिल पर था मैं हैरत-ज़दा,
लालओ-गुल देखकर ऐसा गज़ब, खामोश थे.
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