सोमवार, 26 जनवरी 2009

पहोंच की सीमा के भीतर है, पा भी सकते हैं.

पहोंच की सीमा के भीतर है, पा भी सकते हैं.
हम उसको एक दिन अपना बना भी सकते हैं.

हमारे घर से भी वो चाँद झाँक सकता है,
कि हम हथेली पे सरसों उगा भी सकते हैं.

अगर हैं शांत, न समझो कि डर गये हैं हम,
जो दब चुका है, वो तूफाँ उठा भी सकते हैं.

हमें पता है हकीकत तुम्हारी भीतर से,
तुम्हारे सारे मुखौटे हटा भी सकते हैं.

न जाने कबसे हैं इन सूलियों के आदी हम,
चढाओ इनपे तो हम गुनगुना भी सकते हैं.

किए हैं हमने ही मज़बूत पाये आसन के,
हम आज चाहें तो चूलें हिला भी सकते हैं.
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2 टिप्‍पणियां:

Dr. Amar Jyoti ने कहा…

बहुत ही सुन्दर। हर शेर एक नायाब मोती। पहले शेर के दूसरे मिसरे में 'भी' छूट गया है। कृपया जोड़ लें।

अनिल कान्त ने कहा…

श्रीमान् जी आपने तो बहुत अच्छी कविता लिखी है ......


अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति