गाँव के पोखर से लाते थे चमकती मछलियाँ.
अधमुई, बेजान, निर्वासित, तड़पती मछलियाँ.
ये जलाशय राजनीतिक है, इसे छूना नहीं,
हमने देखी हैं यहाँ शोले उगलती मछलियाँ.
तुम इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना से अभी परिचित नहीं,
देख पाओगे न तुम पेड़ों पे चढ़ती मछलियाँ.
मीन का यह मार्ग अज्ञानी न समझेंगे कभी,
मर के फिर जीवित हुईं इससे गुज़रती मछलियाँ.
मुग्ध हो जाते हैं ख़ुद अपने प्रदर्शन पर वो लोग,
जो दिखाते हैं भुजाओं से उभरती मछलियाँ.
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विशेष : यह छोटी सी ग़ज़ल कबीर की योग-साधना और प्रख्यात सूफी कवि रूमी के सूक्ष्म-चिंतन को विशेष रूप से समर्पित है.
3 टिप्पणियां:
bahut hi sundar gazal hai.
शैलेश जी को प्रणाम...अनूठी बातें और एक एकदम जुदा रदीफ़ की ये गज़ल
नासमझ हूं सर तो ये चौथा शेर कुछ समझ नहीं पा रहा....कृपा होगी,जो कुछ बता सकें इस बारे में
प्रिय गौतम जी,
कबीर ने अपने एक पद में लिखा है - पंखी कै खोज 'मीन कै मारग' कहै कबीर बिचारी'. विद्वानों ने इसकी व्याख्या में केवल अटकलें लगाई हैं. मीन का मार्ग समझने के लिए श्रीप्रद कुरआन का अध्ययन अपेक्षित है. जलालुद्दीन रूमी ने अपनी प्रख्यात मसनवी में भी इसे संदर्भित किया है.श्रीप्रद कुरान में प्रतिष्ठित एवं सम्मानित नबी हज़रत मूसा [अ.] की कथा का संकेत है जो इस प्रकार है- हज़रत मूसा की इच्छा हज़रत खिज्र से मिलने की हुई. जिनका निवास समुद्र में हरित सागर अथवा अमृत सागर में माना जाता है. हज़रत मूसा ने मार्ग के भोजन के लिए नाव में भुनी हुई सूखी मछलियाँ रख लीं और शिष्य को आदेश दिया कि जब ये जीवित हो उठें तो मुझे बता देना. शिष्य गाफिल हो गया और उसने मछलियों पर ध्यान नहीं दिया. हरित सागर के आते ही अमृत के स्पर्श से मछलियाँ जीवित हो उठीं और पानी में मार्ग बनाती हुई निकल गयीं. आगे चलकर जब हज़रत मूसा को भूख लगी उन्होंने शिष्य से मछलियाँ मांगीं. वह बोला मछलियाँ तो नहीं हैं. जाने कहाँ चली गयीं. हज़रत मूसा ने कहा की उसी स्थल की तो मुझे खोज थी. कबीर काव्य में 'मीन कै मारग' के मध्यम से इसी अमृत रुपी रसायन का संकेत है जिसके स्पर्श से मृत आत्मा भी जीवित हो उठती है.
स्नेह सहित
शैलेश जैदी
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