शनिवार, 24 जनवरी 2009

पथरा गया हो जैसे हवाओं का सब शरीर.

पथरा गया हो जैसे हवाओं का सब शरीर.
मुरझा रहा है मन की दिशाओं का सब शरीर.

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कपड़े की तर्ह रख दिया शायद निचोड़ कर,
हालात ने हमारी कलाओं का सब शरीर।

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बच्चे बिलख रहे हैं कि हैं भूख से निढाल,
हड्डी का एक ढांचा है माँओं का सब शरीर।

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अबकी फ़सल हुई भी तो आ धमके साहूकार,
घायल पड़ा है घर की दुआओं का सब शरीर।

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इन बस्तियों से गूंजती है हलकी-हलकी चीख,
बेजान सा है इनकी सदाओं का सब शरीर.
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1 टिप्पणी:

संगीता पुरी ने कहा…

अच्‍छी रचना है....