शोक की मनःस्थिति, मांगती है संवेदन.
आंसुओं की पीड़ा को, समझेंगे न दुह्शासन.
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सब दुखों की गहराई, नापते हैं शब्दों से,
कोई सुन नहीं पाता, चित्त का व्यथित क्रंदन.
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आस्थाओं की झोली, जिसकी रिक्त होती है,
मानती नहीं उसकी, चेतना कोई बंधन.
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दहशतों के हाथों से, सामने निगाहों के,
जल के राख होता है, जीता-जागता मधुवन.
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जब भी याद करता हूँ, मैं वो सारी घटनाएं,
तैरता है आंखों में, होके अवतरित सावन.
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ईंट-पत्थरों ने भी, मेरे दुख को समझा है,
मेरा साथ देते हैं, ये उदास घर-आँगन.
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रविवार, 11 जनवरी 2009
शोक की मनःस्थिति, मांगती है संवेदन.
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