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बुधवार, 28 जनवरी 2009

दिखावे से हैं बहुत दूर सब, विचारों में.

दिखावे से हैं बहुत दूर सब, विचारों में.
मिठास होती है ग्रामीण संस्कारों में.
नलों ने शहरों के पनघट सभी उजाड़ दिए,
बिचारी गोपियाँ मिलती हैं अब क़तारों में.
बताएँगे वो परिश्रम की व्याख्या क्या है,
जो लोग रहते चले आये हैं पठारों में.
ये मिटटी पाती है किस तर्ह रूप और आकार,
कला ये सीखिए जाकर कभी कुम्हारों में.
ज़मीं से तृप्ति नहीं मिल सकी इसे शायद,
मनुष्य सेंध लगता है चाँद तारों में.
कभी न दे सके जो देश को लहू अपना,
शुमार होता है अब उनका जाँनिसारों में.
हमारी मिटटी ने हमको हैं दी वो क्षमताएं,
उगाते आये हैं हम फूल रेगज़ारों में.
धरा ने जब भी कभी वक्ष अपना चाक किया,
विचार उसके हुए व्यक्त आबशारों में.
वो जुगनुओं की चमक किस तरह चुरा पाते,
उन्हें था रहने का अभ्यास अंधकारों में.
न रोक पाया उसे साहिलों का आकर्षण,
चलाईं कश्तियाँ जिसने नदी की धारों में.
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