संवारते थे मेरे स्वप्न मशवरे देकर.
चले गए वो सभी मित्र हौसले देकर.
******
ये बात सच है कि मैं दो क़दम बढ़ा न सका,
खुशी मिली मुझे औरों को रास्ते देकर.
*******
दुखों का काफ्ला ठहरा था मेरे घर आकर,
बिदा हुआ तो गया मुझको रतजगे देकर.
*******
ये सरहदों का तिलिस्मी स्वभाव कैसा है,
ये हँसता रहता है मुद्दे नये-नये देकर.
*******
वो लेके आया बसंती हवाओं की खुशबू,
जुदा हुआ वो मुझे ज़ख्म कुछ हरे देकर.
*******
खुली है खिड़कियाँ उतरेगा चाँद कमरे में,
मैं उसको रोकूंगा कुछ ख्वाब चुलबुले देकर.
**************
गाजा / शैलेश ज़ैदी / संवारते थे मेरे स्वप्न लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
गाजा / शैलेश ज़ैदी / संवारते थे मेरे स्वप्न लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
शनिवार, 17 जनवरी 2009
संवारते थे मेरे स्वप्न मशवरे देकर.
सदस्यता लें
संदेश (Atom)