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शनिवार, 31 जनवरी 2009

कबीर-काव्य : इस्लामी आस्था एवं अंतर्कथाएँ / प्रो. शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 1]

कबीर की इस्लामी आस्था आजके आम मुसलमानों की तरह निश्चित रूप से नहीं थी।वह सूफी विचारधारा की उस क्रन्तिपूर्ण व्याख्या से प्रेरित थी जो उनके विवेक और उनकी आतंरिक अनुभूतिजन्य ऊर्जा के मंथन का परिणाम थी। सूफियों ने पृथक रूप से किसी धर्म का बीजारोपण नहीं किया। हाँ श्रीप्रद कुरआन को समझने के लिए केवल उसके शब्दों तक सीमित नहीं रहे, उसके गूढार्थ को भी समझने के प्रयास किए. श्रीप्रद कुरआन में कहा गया है "तुम कुरआन पर चिंतन-मनन क्यों नहीं करते, क्या तुम्हारे दिलों पर ताले लगे हुए हैं?" यह चिंतन मनन न करने वाली स्थिति मुल्लाओं की है, सूफियों की नहीं. कबीर जीवन-पर्यंत मुल्लाओं को यह सीख देने का प्रयास करते दिखायी दिए. कबीर की रचनाओं से यह संकेत नहीं मिलाता कि उनका कुरआन विषयक ज्ञान सुनी-सुनाई बातों तक सीमित था. प्रतीत होता है कि कबीर ने श्रीप्रद कुरआन को स्वयं पढ़ा भी था और उसपर सूक्ष्मतापूर्वक विचार भी किया था. अपने इन विचारों की पुष्टि में कबीर की रचनाओं से कुछ उदहारण देना उपयोगी होगा.
1. श्रीप्रद कुरआन की आयतें और कबीर की आस्था
श्रीप्रद कुरआन की सूरह लुक़मान [ सत्ताईसवीं आयत] में कहा गया है " यदि धरती पर जितने वृक्ष हैं सब लेखनी बन जाएँ और सात समुद्रों का समस्त जल रोशनाई हो जाय तो भी उसके गुण लेखनी की सीमाओं में नहीं आ सकते." कबीर ने श्रीप्रद कुरआन की इस आयत को रूपांतरित कर दिया है- "सात समुद की मसि करूं, लेखनी सब बनराई./ धरती सब कागद करूँ, तऊ तव गुन लिखा न जाई" मालिक मुहम्मद जायसी ने कबीर की ही भाँति श्रीप्रद कुरआन के आधार पर इस भाव को इन शब्दों में व्यक्त किया है - :सात सरग जऊँ कागर करई / धरती सात समुद मसि भरई. जाँवत जग साखा बन ढाखा / जाँवत केस रोंव पंखि पांखा. जाँवत रेह खेह जंह ताई / मेह बूँद अरु गगन तराई. सब लिखनी कई लिखि संसारू. / लिखि न जाई गति समुंद अपारू. [पदमावत : स्तुति खंड].
श्रीप्रद कुरआन में कहा गया है - "जहाँ कहीं भी तीन [सांसारिक] व्यक्ति गुप्त-वार्ता कर रहे होते हैं उनमें चौथा अल्लाह स्वयं होता है जो उनकी बातें सुनता रहता है." [सूरह अल-मुजादिला, आयत 7]. कबीर ने इसी भाव को इस प्रकार व्यक्त किया है- "तीन सनेही बहु मिलें, चौथे मिलें न कोई / सबै पियारे राम के बैठे परबस होई." स्पष्ट है कि प्रभु-प्रेमी यह देखकर स्वयं को कितना बेबस पाते हैं कि लोग परमात्मा की उपस्थित की चिंता से मुक्त, गुप्त योजनाएं बनाते रहते हैं. काश उन्हें ध्यान रहता कि परमात्मा सब कुछ देख और सुन रहा है तो वे ऐसी हरकतों से दूर रहते.
श्रीप्रद कुरआन के अनुसार "अल्लाह को न ऊघ आती है न नींद" [सूरह अल-बक़रा, आयत 255]. कबीर इस आयत के साथ एकस्वर दिखायी देते हैं- "कबीर खालिक जागिया, और न जागै कोई." किंतु इस 'कोई' की परिधि में नबी और वाली और साधु नहीं आते. नबीश्री की हदीस भी है "मैं निद्रावस्था में भी जागता रहता हूँ.". यह स्थिति "राती-दिवस न करई निद्रा" की है. इतना ही नहीं कबीर का यह भी विशवास है - " निस बासर जे सोवै नाहीं, ता नरि काल न खाहि."
श्रीप्रद कुरआन के अनुसार " प्रत्येक वस्तु विनाशवान है सिवाय उस [प्रभु] के चेहरे के." कबीर का भी दृढ़ विशवास है-"हम तुम्ह बिनसि रहेगा सोई." श्रीप्रद कुरआन में अल्लाह को पूर्व और पश्चिम सबका रब बताया गया है [ सूरह अश्शुअरा, आयत 28] और आदेश दिया गया है कि "साधुता यह नहीं है कि तुम अपने चेहरे पूर्व या पश्चिम की ओर का लो, साधुता यह है कि परम सत्ता पर दृढ़ आस्था रक्खो."[सूरह अल-बक़रा, आयत 177].कबीर आश्चर्य करते हैं कि हिन्दुओं और मुसलमानों ने पूर्व और पश्चिम को बाँट रक्खा है. "पूरब दिशा हरी का बासा, पश्चिम अलह मुकामा." यदि खुदा मस्जिद में और भगवान मन्दिर में निवास करता है तो स्वाभाविक प्रश्न है- "और मुलुक किस केरा ?" इसलिए कबीर एक चुनौती भरा सवाल रख देते हैं - "जहाँ मसीत देहुरा नाहीं, तंह काकी ठकुराई."
श्रीप्रद कुरआन में मनुष्य की सृष्टि से सम्बद्ध अनेक आयतें हैं. एक स्थल पर कहा गया है - अल्लाह वह है जिसने पानी से मनुष्य को पैदा किया." [सूरह अल-फुरकान, आयत 54]. श्रीप्रद कुरआन की सूरह अन-नूर आयत 45, अल-मुर्सलात, आयत 20, अन-नहल, आयत 86 में भी इसी भाव को व्यक्त किया गया है. कबीर की दृष्टि में प्रभु रुपी जल-तत्व समस्त ज्ञान का स्रोत है. "पाणी थैं प्रगट भई चतुराई, गुरु परसाद परम निधि पायी." प्रभु ने इसी एक पानी से मनुष्य के शरीर की रचना की - "इक पाणी थैं पिंड उपाया." यहाँ कुरआन की ऐसी अनेक आयातों के सन्दर्भ आवश्यक प्रतीत होते हैं जिनके प्रकाश में कबीर की रचनाओं को आसानी से समझा जा सकता है. कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं -
1. हमने मनुष्य को मिटटी के सत से पैदा किया. [सूरह अल-मोमिन, आयत 12 ]
2. उसने [प्रभु ने] तुमको मिटटी से बनाया.[ सूरह अल-अन'आम, आयत 02,]
3. तुमको एक जीव से पैदा किया. [सूरह अल-ज़ुम्र, आयत 6]
4. जब तुम्हारे रब ने फरिश्तों से कहा 'निश्चय ही मैं मिटटी से एक मनुष्य बनाने वाला हूँ. फिर जब मैं उसे परिष्कृत कर लूँ और उसमें अपनी रूह फूँक दूँ तो उसके आगे सजदे में गिर जाओ." [सूरह अल-साद, आयत 71-72]
कबीर ने - "एक ही ख़ाक घडे सब भांडे," "माटी एक सकल संसारा." तथा "ख़ाक एक सूरत बहुतेरी." कहकर श्रीप्रद कुरआन में अपनी आस्था व्यक्त की है. परम सत्ता ने मनुष्य के मिटटी से निर्मित शरीर में अपनी रूह फूँक कर उसे प्राणवान बना दिया. कबीर ने "देही माटी बोलै पवनां." माटी का चित्र पवन का थंमा," "माटी की देही पवन सरीरा," माटी का प्यंड सहजि उतपना नादरू ब्यंड समाना." आदि के माध्यम से श्री आदम के भीतर परम सत्ता [जो अबुल-अर्वाह अर्थात समस्त रूहों की जनक है] की फूँक का ही संकेत किया है जिसकी वजह से आदम फरिश्तों के समक्ष सजदे के योग्य ठहराए गए. सच पूछा जाय तो यही नाद-ब्रह्म की अवस्थिति है.
श्रीप्रद कुरआन के अनुसार "हिसाब-किताब के दिन प्रत्येक व्यक्ति को परम सत्ता के समक्ष अपने कर्मों का हिसाब देना होगा."[ सूरह अन-नह्व, आयत 93 ] कबीर इस आदेश पर अटूट विशवास रखते हैं. "कहै कबीर सुनहु रे संतो जवाब खसम को भरना," "धरमराई जब लेखा मांग्या बाकी निकसी भारी," "जम दुवार जब लेखा मांग्या, तब का कहिसि मुकुंदा," "खरी बिगूचन होइगी, लेखा देती बार," जब दफ्तर देखेगा दई, तब ह्वैगा कौन हवाल," 'साहिब मेरा लेखा मांगे, लेखा क्यूँकर दीजे," जैसे अनेक उदहारण कबीर की रचनाओं में उपलब्ध हैं. जिनसे 'आखिरत' के दिन पर कबीर की गहरी आस्था का संकेत मिलता है.
श्रीप्रद कुरआन के अनुसार "परम सत्ता ने आकाश को बिना स्तम्भ के खड़ा किया." [सूरह अल-राद, आयत 02 ]. एक अन्य आयत में कहा गया है " तुम आकाशों को बिना स्तम्भ के देखते हो." [सूरह लुक़मान, आयत 10]. और फिर यह भी बताया गया है कि "वही [प्रभु] आकाश और धरती को थामे हुए है." [सूरह फातिर, आयत 41].कबीर इस भाव को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि जिस परमात्मा ने पृथ्वी और आकाश को बिना किसी आधार के स्थिर कर रक्खा है उसकी महिमा का वर्णन करने के लिए किसी साक्षी की अपेक्षा नहीं है -"धरति अकास अधर जिनि राखी, ताकी मुग्धा कहै न साखी."
श्रीप्रद कुरआन में कहा गया है कि "अल्लाह मनुष्य को अपनी शरण देता है.उस जैसा कोई शरणदाता नहीं है." [सूरह अल-मोमिन, आयत 88].कबीर भी सर्वत्र अल्लाह की ही शरण के इच्छुक दिखाई देते हैं -"कबीर पनह खुदाई को, रह दीगर दावानेस," "कहै कबीर मैं बन्दा तेरा, खालिक पनह तिहारी," तथा " जन कबीर तेरी पनह समाना / भिस्तु नजीक राखु रहिमाना." अन्तिम उद्धरण में कृपाशील परमात्मा से बहिश्त [स्वर्ग] में अपने विशेष नैकट्य में रखने की याचना करना, कबीर की परंपरागत इस्लामी आस्था का परिचायक है. आज भी मृतक के हितैषी उसके लिए अल्लाह से प्रार्थना करते हैं कि अल्लाह उसे अपने ख़ास जवारे-रहमत [विशेष कृपाशील सामीप्य] में स्थान दे.
कबीर ने दाशरथ राम और नंदसुत श्रीकृष्ण की भगवत्ता स्वीकार नहीं की और कारण यह बताया कि जो जन्म और मृत्यु के बंधनों से मुक्त नहीं है,वह उनकी दृष्टि में अलह, खालिक, करता, निरंजन नहीं हो सकता. इस्लाम में अल्लाह को अविनाशी कहा गया है और "वह न तो जन्म लेता है, न मृत्यु को प्राप्त करता है, न ही उसे सांसारिक संकट घेरता है. " [सूरह अल-आराफ़, आयत 191] तथा सूरह अन-नह्व, आयत 20-22].कबीर ने इसी भाव को इन शब्दों में व्यक्त किया है - "जामै, मरै, न संकुटि आवै नांव निरंजन ताकौ रे" तथा "अविनासी उपजै नहिं बिनसै, संत सुजस कहैं ताकौ रे."
श्रीप्रद कुरआन में कहा गया है कि "ऐसी चीज़ की पूजा क्यों करते हो जिसे तुम्हारे हानि- लाभ पर कोई अधिकार नहिं है." [ सूरह अल-माइदा, आयत 25]. हानि-लाभ पर अधिकार न होने में भौतिक उपयोगितावादी दृष्टि का भी संकेत है. कबीर ने पाहन पूजने वालों के समक्ष इसे उदहारण के साथ स्पष्ट कर दिया है और बताया है कि यदि तुम्हारी दृष्टि उस सूक्ष्म प्रभु तक पहुँचने में सक्षम नहीं है और तुम्हारी पूजा का लक्ष्य लाभान्वित होना ही है तो घर की चक्की क्यों नहीं पूजते जिसका पिसा हुआ अनाज तुम रोज़ खाते हो - "घर की चाकी कोई न पूजै, जाको पीसो खाय." श्रीप्रद कुरआन के अनुसार नबीश्री "इब्राहीम ने मूर्तिपूजकों से प्रश्न किया कि "जब वे अपने इष्ट देवताओं से कुछ याचना करते हैं तो क्या वे उनकी याचना का कोई उत्तर देते हैं ? उन्हों ने कहा नहीं." [सूरह अश-शु'अरा, आयत 73 तथा सूरह अल-राद, आयत 14].कबीर ने "पाहन को का पूजिए, जरम न देइ जवाब" में इसी तथ्य का संकेत किया है.
इस्लामी आस्था के अनुसार मृत्योपरांत मनुष्य के शरीर को कब्र में दफना दिया जाता है. कबीर ने अनेक स्थलों पर इस आस्था का संकेत किया है - "अन्तकाल माटी मैं बासा लेटे पाँव पसारी," " माटी का तन माटी मिलिहै, सबद गुरु का साथी," एक दिनां तो सोवणा लंबे पाँव पसारि," तथा "जाका बासा गोर मैं, सो क्यों सोवै सुक्ख." स्पष्ट है कि कबीर पर श्रीप्रद कुरआन की शिक्षाओं का गहरा प्रभाव था और कुछ मामलों में वे परंपरागत मुस्लिम आस्थाओं से भी जुड़े हुए थे.
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मंगलवार, 19 अगस्त 2008

कबीर की भक्ति का स्वरुप / प्रो. शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 1]

रामानुजाचार्य, पातंजलि, विष्णुपुराण, नारद भक्ति सूत्र , शांडिल्य भक्ति सूत्र आदि के सन्दर्भों से भारतीय चिंतन परम्परा में भक्ति के स्वरुप का जिस प्रकार विवेचन किया जाता है, उसकी कोई ठोस परम्परा हिन्दी कविता में नहीं दिखाई देती. कबीर के समय तक रामानंद के तमाम प्रयासों के बावजूद वैष्णव भक्ति का उत्तरी भारत में कोई स्पष्ट जनाधार नहीं था. गोरखनाथ की निरंतर गहराती छवि एवं सूफियों की प्रेममूलक भक्ति का कोमल मानवीय स्पर्श लोकमानस को अपने चुम्बकीय प्रभाव से आलोकित कर रहा था. एक ओर साधनामूलक ज्ञान का अध्यात्मपरक आकर्षण था तो दूसरी ओर ह्रदय में परम सत्ता की अनुभूति से ज्योतित प्रेममूलक भक्ति की निरंतर बढ़ती लोकप्रियता थी. पुस्तकीय एवं बौद्धिक ज्ञान से उत्पन्न वाद-विवाद एवं तर्क-वितर्क अपनी सार्थकता खो बैठे थे. कबीर की भक्ति के स्वरुप का विवेचन एवं विश्लेषण इसी पृष्भूमि में किया जाना चाहिए.
1. प्रेममूलक भक्ति
कबीर की गणना भले ही ज्ञानाश्रयी भक्तों की पंक्ति में रखकर की जाय किन्तु कबीर की भक्ति का सार-तत्व एकान्तिक सत्ता के प्रति अनन्य प्रेम ही है. इस प्रेम के 'ढाई आखर' तात्विक ज्ञान का मूलाधार हैं. किंतु इन ढाई अक्षरों की शिक्षा किसी परंपरागत शास्त्रीय पाठशाला में नहीं दी जाती. इन्हें पढने के लिए सद गुरु की कृपा अनिवार्य है. पर इस सद गुरु की प्राप्ति सभी को नहीं हो पाती. यह तो प्रभू की कृपा से ही प्राप्त हो सकता है- 'जब गोविन्द कृपा करी/ तब गुरू मिलिया आइ.'
1.1 सद् गुरू की भूमीका
हिन्दी आलोचक विशेष रूप से इस तथ्य पर बल देते हैं और वैसे भी सामान्य रूप से यह माना जाता है कि ' गुरू की भक्ति का जैसा रूप भारत वर्ष में है, वैसा कहीं नहीं है।' ( 1) इसमें संदेह नहीं कि 'श्वेताश्वतर' एवं ' मुण्डकोपनिषद ' में गुरू की महत्ता को स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया गया है. किंतु गुरूवाद की कोई सुदृढ़ परम्परा वैष्णव काव्य साहित्य में नहीं मिलती. गुरू की महत्ता को रेखांकित करना और बात है और गुरू को व्यावहारिक स्तर पर ब्रह्म जैसा अथवा ब्रह्म समझ कर और मानकर उसकी उपासना करना और बात है। तुलसी और सूर जैसे सगुण भक्त भी गुरु की महिमा का बखान करते नहिं दिखायी देते. भारत के साधना मार्गों में गुरूवाद की ठोस परम्परा निश्चित रूप से मिलती है और योगियों में तो गुरू के प्रति सम्मान भावना अनिवार्य सी प्रतीत होती है. किंतु सूफी साहित्य में गुरू की महत्ता का जैसा आदर्श दृष्टिगत होता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है. वहां परम सत्ता और गुरू के मध्य अभेदत्व की स्थिति स्पष्ट देखी जा सकती है. मौलाना जलालुद्दीन रूमी ने अपने गुरू शम्स तबरेज़ के प्रति अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किए हैं-
पीरे-मन मुरीदे-मन, दर्दे-मन, दवाए मन .
रास बेगुफ्त्म ईं सुखन, शम्से-मन, खुदाए-मन.(2)
अर्थात्- मैं ये बात सच कहता हूँ कि मेरा गुरू मेरा मुरीद, मेरी पीड़ा मेरी औषधि मेरा शम्स है जो मेरा खुदा है.
प्रभु के प्रेम में उन्मत्त मलिक मसऊद ने अपने गुरू को संबोधित करते हुए कहा- 'तेरी भृकुटियों के किबला की ओर सिजदा करना (मेरे लिए) अनिवार्य है (3) (सजदा बसूए क़िब्लये अब्रूए तस्त फ़र्ज़ ). प्रख्यात सूफी कवि अमीर खुसरो ने भी अपने गुरू निज़ामुद्दीन औलिया के प्रति ऐसे ही विचार व्यक्त किए थे- 'मैं अपना किबला' (मक्के का वह पवित्र स्थान जिसकी ओर मुंह करके मुसलमान नमाज़ पढ़ते हैं) तिरछी टोपी वाले (हज़रत निजामुदीन औलिया तिरछी टोपी पहनते थे) की ओर सीधा कर लेता हूँ.(4) (मन किबला रास्त कर्दम बर सिम्ते कज कुलाहे) . निजामुद्दीन औलिया के अनेक शिष्य अपने गुरू को सिजदा किया करते थे. शेख जलालुद्दीन तबरेज़ी अपने गुरू शेख शहाबुद्दीन के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित थे. गुरू सेवा में लीन रहना उनका धर्म था. अपने गुरू की हज यात्रा के समय उन्हें गर्म भोजन देने के लिए वे भोजन के बर्तन की अंगीठी सर पर रखकर गुरू के पीछे-पीछे चलते थे.(5) शेख अब्दुल कुद्दूस ने 'रुश्दनामा' में ऐनुल्कुज्जात हमदानी का यह मत उद्धृत किया है- 'फकीर (संत) ही अल्लाह है, सूफी ही अल्ल्लाह है, मार्ग दर्शक ही अल्लाह है, गुरू ही अल्लाह है. (6)(अल्फकीर हुवल्लाह, अस्सूफी हुवल्लाह, अल्हादी हुवल्लाह, अश्शैख हुवल्लाह)
कबीर काव्य में गुरू की महत्ता इसी पृष्ठभूमि में देखी जा सकती है.कबीर की निश्चित अवधारणा थी कि 'गुरू गोविन्द तो एक हैं, दूजा यह आकार' अर्थात् जो रूप और आकार के भेद में पड़ गया वह गुरू और परमात्मा के मध्य अभेदत्व की स्थिति को नहीं समझ सकता. सूफी साधकों तथा कवियों में इस प्रसंग में नाबीश्री को पूर्ण मानव, सिद्ध पुरूष, सद गुरु और बिना मीम का अहमद अर्थात 'अहद' अर्थात् आकार से मुहम्मद और बिना आकार के प्रभु मानने की परम्परा रही है. इस सम्बन्ध में कबीर के समकालीन हिन्दी सूफी कवि अलखदास ने नाबीश्री की कुछ हदीस उद्धृत की है(7) जो द्रष्टव्य है-
1- मुझसे अल्लाह ने कहा कि मैं तुमसे तुम्हारी सत्ता से भी अधिक निकट हूँ.
2- जिसने मुझे देखा उसने परम सत्ता को देखा.
3- मैं अहमद हूँ बिना मीम का.
4- ऐ मेरे बन्दे ! तू मेरा हो जा, जिससे कि मैं तेरा हो जाऊं और जो कुछ मेरा है वह सब तेरा हो जाय.
श्रीप्रद कुरआन में नबीश्री को ज्योतिपुंज कहा गया है. (8) जो कि ईश्वर के प्रकाश का सत्व है और बताया गया है कि बौद्धिकता और पुस्तकीय ज्ञान से रहित समुदाय से चुनकर मुहम्मद को नबी बनाया गया जो सर्व सामान्य को प्रभु की आयतें सुनाते हैं अर्थात प्रभु के गूढ़ एवं दिव्य रहस्यों से युक्त शब्दज्ञान से ज्योतित करते हैं और उनके हृदयों को परिष्कृत करते हैं जिससे यह मनुष्य सांसारिक विषय विकारों से मुक्त रह सके.(9) इस प्रकार नबीश्री में सद् गुरु के वे सभी गुण विद्यमान हैं जिनकी चर्चा सूफियों और संतों ने की है.
कबीर का सद् गुरु कोई व्यक्ति विशेष न होकर विशिष्ट गुणों का पुंज है. वह गंभीर है, गौरव पूर्ण है, अपने स्वरुप के साथ अपने शिष्य को इस प्रकार मिला लेता है जैसे आटे में नमक मिल जाता है. इस स्थिति को प्राप्त करते ही जाति-पांति, कुल इत्यादि सब मिट जाता है. शिष्य का कोई नाम नहीं रह जाता- 'कबीर गुरु गरवा मिल्या, रलि गया आंटे लूँणि/ जाति पांति कुल सब मिटे, नाँव धरोगे कूँणि.' प्रतीत होता है जैसे कबीर ने सिद्ध पुरूष के रूप में नबीश्री अथवा किसी अन्य 'वली' को पाकर उन्हें सदगुरु के रूप में स्वीकार कर लिया हो. अध्यात्म जगत में ऐसा अनेक साधक करते आए हैं. ' खोजत- खोजत' सद् गुरु पाया’ के माध्यम से कबीर ने कुछ ऐसा ही संकेत भी किया है.
कबीर का गुरू ज्ञान प्रकाश से प्रकाशित (ज्ञान प्रकास्या गुरू) है. इसलिए वह शिष्य के हाथ में तेल से भरा दीपक, जिसकी बत्ती कभी नहीं घटती, पकड़ा देता है जिससे कि वह सांसारिकता के हाट में क्रय-विक्रय की प्रक्रिया से पूरी तरह मुक्त रहकर दीपक के प्रकाश से मार्ग दर्शन प्राप्त करता रहता है- 'दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघटट् / पूरा किया बिसाहूणा , बहुरि न आवौं हटट् .'.
कबीर अपने उस गुरू पर मुग्ध हैं, सब कुछ न्योव्छावर कर देने के पक्ष में हैं. जिसने अस्थिचर्ममय शरीर को ऐसे दिव्य गुणों की ज्योति से ज्योतित कर दिया कि मनुष्य रूप में विषय विकारों से युक्त शिष्य कुछ ही क्षणों में पूजनीय बन गया- 'बलिहारी गुरु आपनें' द्यो हाड़ी कै बार, / जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार.'
कबीर का गुरु जिस समय मार्ग दर्शन हेतु शिष्य के हृदय को शब्द बाण से बेधता है तो ज्ञान की अपूर्व ज्योति पाकर वह ऐसा स्तब्ध रह जाता है कि उसकी ज़बान गूंगी हो जाती है, कान बहरे हो जाते हैं, पाँव चलने के योग्य नहीं रह जाते और वह पूर्ण रूप से बावला हो जाता है- 'गूंगा हुआ, बावला, बहरा हुआ कान/ पांऊँ थैं पंगुल भया, सतगुरु मार्या बान. ' कबीर का सदगुरू सच्चा शूरवीर है. (सतगुरु साचा सूरिवां). उसका निशाना कभी चूकता नहीं . उसका चलाया हुआ तीर शरीर में भीतर तक जाकर धंस जाता है (भीतरि रह्या सरीर) और जब वह मूठ को सीधी करके प्रेम के अग्निवाण से शिष्य के शरीर को बेधता है तो दावाग्नि सी फूट पड़ती है और विषय वासना के वृक्ष की टहनियां चिटख-चिटख कर जलने लगती हैं और सम्पूर्ण जंगल जलकर राख हो जाता है- 'सतगुरु मारया बाण भरि, धरि करि सूधी मूठि/ अंगि उघाडै लागिया, गयी दवा सूँ फूटि.' कबीर ने इसी से मिलते-जुलते भाव अन्य स्थलों पर भी व्यक्त किए हैं-' प्रकट प्रकास ज्ञान गुरुगमि थैं, ब्रह्म अगिनि परजारी. ' अथवा 'कहें कबीर गुरु दिया पलीता, सो झल बिरलै देखी.'
कबीर का दृढ़ विश्वास है कि गुरु के वचनों के रस में जब शिष्य पूरी तरह डूब जाता है तभी वह इस योग्य हो पता है कि प्रभु के नाम से लौ लगा सके- ' गुरु बचना मंझि समावै, तब राम नाम लौ ल्यावै।' कबीर की दृष्टि में सबकुछ गुरु की कृपा पर निर्भर करता है. गुरु की महिमा से सूई की नोक से हाथी भी आसानी से आ जा सकता है- ' गुरु प्रसाद सूई के नाकैं, हस्ती आवै जाहिं.' किंतु ऐसा गुरु आसानी से प्राप्त नहीं होता. कबीर के समकालीन कवि अलखदास ने अपनी एक चिट्ठी में अब्दुर्रहमान सूफी को लिखा कि जिस समय गुरु का 'जमाल' (सौन्दर्य) सच्चे शिष्य के लिए प्रभु के सौन्दर्य का दर्पण बन जाय तो सच्चा शिष्य गुरु पूजक बन जाता है. यह शिष्य खुदापरस्त शिष्य से श्रेष्ठ होता है. (10) कबीर 'गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, वाली साखी में एक ऐसे ही शिष्य के रूप में अपना परिचय कराते हैं. गुरु की तलाश में भटकने वाले कबीर की, कितने ही महापुरुषों में सदगुरु को खोजने के बाद वास्तविक सदगुरु से भेंट हुई- 'अनेक जन का गुरु-गुरु करता , सतगुरु तब भेंटाना.'इस पंक्ति के आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि प्रारम्भ में शेख़ तक़ी ही नहीं अन्य अनेक सूफियों-संतों को कबीर ने गुरु माना होगा किंतु एकत्ववाद का ज्ञान हो जाने पर उनकी आस्था से मेल न खाने के कारण उन्हें छोड़ दिया होगा. ध्यान रहे कि अस्तित्व के एकत्व में आस्था रखने वाले कबीर अपने समय के गुरु होने का दंभ भरने वाले ज्ञान रहित तथा चक्षुविहीन गुरुओं से भली प्रकार परिचित थे और इसके कुपरिणामों से भी अनभिज्ञ नहीं थे-'जाका गुरु भी आंधला, चेला खरा निरंध./ अन्धै अँधा ठेलिया, दुन्यु कूप पडंध.' यह साखी कबीर के एक अन्य समकालीन कवि शेख़ नूर के नाम से भी मिलती है जिसका उल्लेख अलाखदास ने रुश्दनामा (अलखबानी ) में किया है।
1.2. प्रेम का स्वरुप एवं महत्त्व
कबीर काव्य के अध्ययन से एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि उनकी रचनाओं में दिव्य आत्मतत्व के प्रति प्रेममूलक भावानुभूति की तीव्रता मानव को उसके स्थूल सीमाभाव से निकालकर उसके भीतर विद्यमान दैवी स्वरुप के साथ समरस बना देती है. यह समरसता उसके सांत एवं अनंत तथा मर्त्य एवं अमृत तत्वों को प्रेम के पवित्र स्पर्श से एकमेक कर देती है. इस अवस्था को प्राप्त करके यह मनुष्य परम सत्ता की अनंतता और अमरत्व प्राप्त कर लेता है. कबीर की प्रेम मूलक भक्ति साधक में अध्यात्म के प्रति तीव्र आकर्षण जगाकर उसके मन और ह्रदय को प्रेमतत्त्व के साथ अभिन्न बना देती है. अध्यात्म तत्व के प्रति यह आकर्षण, गुरु कृपा के फलस्वरूप ह्रदय की स्वाभाविक उमंग का नतीजा होता है. किंतु जैसा कि शेख सादी ने कहा है- 'संपत्ति, प्रतिष्ठा, यश, शुभ-अशुभ का परित्याग, प्रेम मार्ग का प्रथम सोपान है.'(11) कबीर की दृष्टि में भी दंभ, अंहकार, सांसारिक सुख, धन और यौवन का गर्व, काम, क्रोध, अपवित्रता, मोह, मद, दुष्कर्म आदि का परित्याग किए बिना ह्रदय में प्रेम तत्व का प्रकाश नहीं हो सकता. कबीर को ऐसे तथाकथित भक्त बहुत बड़ी संख्या में मिले जिनके पास प्रभु की भक्ति तो नाम मात्र को थी, हाँ अंहकार भरा पड़ा था-''थोरी भगति बहुत अहंकारा, ऐसे भक्त मिलें अपारा.'' कबीर के निकट 'भगति हजारी कापड़ा' है जिसमें किसी प्रकार की कलुषता का समावेश सम्भव नहीं है- 'ता मन मल न समाई'. ऐसी स्थिति में श्वेत वस्त्र धारण करके और गले में माला डालकर भक्त होने का स्वांग रचने से कोई लाभ नहीं, मन की कालिमा तो ज्यों की त्यों बनी हुई है. भक्ति का मूलाधार प्रेम है और बिना प्रेम के अश्रु बहाने से कोई लाभ नहीं-'स्वांग सेत करणी मन काली, कहा भयो गलि माला धाली.' अथवा ' बिन ही प्रेम कहा भयौ रोयें, भीतरि मैल बाहर कहा धोयें.'
कबीर जिस प्रेम मूलक भक्ति के पक्षधर हैं, उसकी पहचान स्पष्ट कर देने में उन्हें तनिक भी संकोच नहीं है. वे कहते हैं- 'प्रेम भगति हिंडोलना सब संतन को विश्राम,' किंतु यह प्रेम सरल नहीं है. इसके लिए प्रतिष्ठा और प्राण दोनों ही दाव पर लगाना पड़ता है. कबीर के समकालीन कवि अलखदास (जन्म- 1456 ई०) ने जो फारसी में अहमदी उपनाम से कविता लिखते थे, एक शेर में इसी विचार को व्यक्त किया है-
अहमदी तादर न बाज़ी मालो-जातो-जानो-तन,
हरगिज़ अज इश्क़त न बाशद शम्मए अन्दर मशाम. (12)
अर्थात- अहमदी! यदि तू संपत्ति, प्रतिष्ठा, प्राण और संपत्ति दाव पर नहीं लगा देता तो तुझे परम सत्ता के प्रेम की सुगंध कभी प्राप्त नहीं हो सकती.
कबीर भी इस रहस्य से पूरी तरह परिचित हैं. जभी तो वे शरीर को गोंट बनाकर प्रेम का पासा पकड़ते हैं और गुरु के बताये हुए दांव के अनुरूप चौपड़ खेलते हैं- 'पासा पकड़या प्रेम का, सारी किया सरीर/ सतगुरु दांव बताइया, खेलै दास कबीर.' अहमदी ने एक अन्य शेर में भी प्रभु प्रेम के मार्ग में आगे बढ़ने के लिए पांसे पर संपत्ति, प्रतिष्ठा, और प्राण का दांव लगाने की बात की है- 'गर तू आशिक नर्दबाजी मालो, जाहो जां बेबाज़' अर्थात यदि तू प्रभु का प्रेमी है तो पांसे पर संपत्ति, प्रतिष्ठा और प्राण का दांव लगा दे. मलिक मोहम्मद जायसी के पद्मावत में रत्नसेन के इस आश्वासन पर कि वह अन्तिम साँस तक पद्मावती से कभी अलग न होगा, पद्मावती कहती है- 'ऐसे राज कुंवर नहिं मानों/ खेलु सारि पासा तौ जानौं.' (312/1) अर्थ स्पष्ट है कि चौपड़ के खेल में यदि तुम युग बाँध सको अर्थात युगनद्ध हो सको तो मैं समझूंगी कि तुम सच्चे प्रेमी हो.चौपड़ के खेल में जुग बांधकर खेलने से खिलाडी का मनोबल बना रहता है. जुग गोट कभी पिट नहीं सकती. अच्छा खिलाडी जुग बांधने पर उसे कभी अलग नहीं होने देता. इसी लिए कबीर कहते हैं कि जिसे पासा डालने का ज्ञान है वह प्रेम की चौपड़ में कभी नहीं हारता -' कहें कबीर वे कबहूँ न हारें, जानी जु ढ़ारें पासा. अथवा 'बाजीगर संसार कबीरा, जानी ढारौं पासा.
फारसी के एक सूफी कवि का शेर है- 'गर मरदे राहे इश्के जांरा हदफ़ बेसाज़./ अज़ तीर रूबगरदाँ वज़ तेग दम बेज़न.' (13) अर्थात यदि तू प्रेम मार्ग का पुरूष है तो प्राण को निशाने के समक्ष कर दे. तीर के सामने से अपना मुंह मत फेर और तलवार के सामने साँस ले. कबीर भी इसी विचारधारा के पक्षधर हैं. प्रभु के प्रेम में तन्मय पुरूष उसके मार्ग में अपने प्राण बचाने की चिंता नहीं करता. वह टुकड़े-टुकड़े हो जाय पर मैदान नहीं छोड़ता- सूरा तबही परखिये, लड़ें धणी के हेत./ पुर्जा- पुर्जा ह्वै पडै, तऊ न छोडै खेत. ' अथवा ' खेत न छाडै सूरिवां, जूझै द्वै दल माहिं./ आसा जीवन मरण की, मन मैं आनै नाहिं. श्रीपद कुरान में कहा गया है - वलातकूलू लिमैंयुक्तलु फी सबीलिल्लाहि अम्वातुन बल अहयाउन्वला किल्ला तशअरुन.(14) अर्थात 'और उन लोगों को जो प्रभु प्रेम के मार्ग में क़त्ल हो जाते हैं, उन्हें मुर्दा मत कहो. वे तो जीवित हैं, हाँ तुम्हें इसकी अनुभूति नहीं होती. इस्लाम में प्रभु के मार्ग का योद्धा विजयी होने पर 'गाजी' और मारे जाने पर 'शहीद' कहलाता है. 'शहीद' को अमरत्व प्राप्त होने के कारण उसका पद उच्चतम स्वीकार किया गया है. कबीर भी ' शहीद' के पद को जीवन की श्रेष्ठतम उपलब्धि मानते हैं. कबीर के समकालीन कवि अलखदास ने प्रेम के मार्ग में विजयी और हताहत होने वाले दोनों प्रकार के योद्धाओं को श्रेष्ठ माना है- 'जो जूझै तो अति भला, जे जीतै तो राज/ दुहूँ पंवारे हे सखी, मांदल बाजौ आज.'
सूफियों का विश्वास है कि इश्क के मार्ग में यदि आशिक मारा जाय तो माशूक स्वरूप हो जाता है. कबीर की आस्था इससे भिन्न नहीं है-' जो हारया तो हरि संवाँ, जो जीत्या तो डाव, पारब्रह्म कै सेवतां, जो सर जाई तो जाव.' भगवतगीता में भी कहा गया है- 'हतोवा प्रापस्यसि स्वर्गः जित्वा व भोक्ष्यसे महीम. (2/37). किंतु प्राचीन भारतीय इतिहास में 'शहीद' को उच्च स्थान देने की कोई परम्परा नहीं मिलती. जिस मृत्यु से हर व्यक्ति डरता है कबीर की प्रेममूलक भक्ति में वह आनंद की वस्तु है- जिस मरनैं थें जग डरै, सो मेरे आनंद/ कब मरिहूँ कब देखिहूँ, पूरन परमानन्द.' शीआ आस्था के मुसलमान नबीश्री के उन तथाकथित मित्रों को प्रिय नहीं रखते जो धर्म युद्धों में जब भी रणक्षेत्र में भेजे जाते तो न हताहत होते न ही विजयी. अपने प्राण बचाकर रणक्षेत्र से लौट आते. फिर भी बढ़-चढ़ कर बातें करने में कोई कमीं न आती. खैबर के युद्ध में जब चालीस दिनों तक यही स्थिति बनी रही तो नबीश्री ने कहा कि - 'मैं कल सेना की पताका उसके हाथ में दूँगा जो कर्रार है (जमकर युद्ध करने वाला) और गैर फ़र्रार है अर्थात भगोड़ा नहीं है. दूसरे दिन सेना की पताका शूर वीर अली को दी गयी और धर्मयुद्ध में उन्हें विजय प्राप्त हुई. यह देखकर नबीश्री के तथाकथित मित्रों के चेहरों के रंग उड़ गए. कबीर ने प्रेममार्ग के ऐसे ही भगोड़े योद्धाओं पर चोट की है- 'कायर बहुत पमावहीं, बहकि न बोलै सूर/ काम पड्या ही जानिए, किसके मुख परि नूर.'
नबीश्री की यह 'हदीस' सूफियों में अत्यधिक लोकप्रिय है कि 'निष्ठावान भक्त का प्रभु के प्रति प्रेम उस समय तक पूर्ण नहीं होता जब तक लोग यह न कह दें कि यह पागल है.' कबीर ने प्रभु-प्रेम में अपनी दीवानगी और पागलपन को जिन शब्दों में व्यक्त किया है उसका उदाहरण हिन्दी काव्य में दुर्लभ है. कबीर कहते हैं कि ठीक है सारी दुनिया सयानी है एक बस मैं ही पागल हूँ, बिगड़ गया हूँ. और लोग अपना ध्यान रखें और मेरी तरह न बिगडें- 'सब दुनी सयानी मैं बौरा, हम बिगरे, बिगरौ जिनि औरा.' किंतु कबीर यह भी बता देना चाहते हैं कि मैं स्वयं नहीं दीवाना या पागल हो गया. मुझे प्रभू के प्रेम ने पागल कर दिया है- 'मैं नहिं बौरा, राम कियो बौरा.' और सच तो यह है कि मैं विद्या पढने और वाद-विवाद के चक्करों में पड़ने से सदैव बचा रहा. मेरा यह बावलापन तो प्रभु के गुणों की चर्चा करते रहने और इस चर्चा को सुनते रहने का परिणाम है- विद्या न पढ़ बाद नहीं जानूं, हरिगुन कथत सुनत बौरानूं.' मैं तो भीतर और बाहर से प्रभु के रंग में समा गया हूँ. इस स्थिति में लोग मुझे पागल कहते हैं- 'अभि अंतरि मन रंग समाना, लोग कहैं कबीर बौराना.' किंतु कबीर के इस पागलपन का मर्म तो केवल प्रभु ही जानते हैं- 'लोग कहैं कबीर बौराना, कबीर कौ मर्म राम भल जाना.'
नबीश्री की एक हदीस सूफियों में पर्याप्त चर्चित रही है- 'अल्लाह ने मुझसे कहा कि मेरे पास मेरे मित्रों (भक्तों)' के लिए शराब है। जब वे उस शराब को पीते हैं तो मस्त हो जाते हैं. जब वे मस्त हो जाते हैं तो नृत्य करने लगते हैं. और जब नृत्य करते हैं तो प्रेम के भावावेश में मुझे प्राप्त कर लेते हैं और मुझसे उनका साक्षात्कार हो जाता है. इस अवस्था में मेरे और उनके बीच कोई अन्तर नहीं रह जाता.' इस प्रसंग में शेख फखरुद्दीन इब्राहीम हमदानी का एक शेर द्रष्टव्य है- ' बदीं सिफत कि मनम अज़ शराबे-इश्क़ ख़राब, मरा चे जाए -करामातो- नाम यां नंगस्त.' (16 ) अर्थात मैं जो इस प्रकार अलौकिक प्रेम की शराब से मस्त हूँ, मुझे चमत्कारों की या मान तथा नाम की क्या आवश्यकता है.शराब, शराब की भट्ठी और कलाल आदि के प्रतीक मेरी जानकारी में कबीर से पूर्व हिन्दी काव्य में उपलब्ध नहीं है. संस्कृत काव्य में भी इन प्रतीकों की कोई परम्परा नहीं है. सूफी कवियों में जुन्नून ने कदाचित पहली बार अपनी रचनाओं में इन प्रतीकों का प्रयोग किया. हाफिज़ के यहाँ तो ये प्रतीक उनकी कविता की पहचान बन गए. अन्य फारसी कवियों ने भी इन प्रतीकों का जमकर उपयोग किया. कबीर की रचनाओं में ये प्रतीक निश्चित रूप से फारसी कविता के प्रभाव से आए. प्रभु प्रेम की मदिरा की एक बूँद भी कलाल की भांति सहज भाव से यदि कोई संत कबीर की मदिरा के प्याले में भर दे तो उसके बदले में वह उसे अपनी सम्पूर्ण तपस्या दलाली के रूप में देने के लिए तत्पर हैं- '' है कोई संत सहज सुख उपजै, जाको जप-तप देऊँ दलाली.' 'एक बूँद भरि देइ राम रस, जिऊँ भर देई कलाली.' कबीर की दृष्टि में प्रभु प्रेम की मदिरा का पान करने वाला उसके अनंत खुमार में डूबा रहता है. वह तो बस मदमस्त घूमता रहता है जहाँ उसे अपने शरीर की भी कोई सुध नहीं रहती- ' हरि रस पीया जाणिए, जै कबहूँ न जाई खुमार./ मैमनता घूमत रहै, नाहीं तन की सार.' और ऐसा क्यों न हो. कलाल की भट्ठी को घेर कर पीने की इच्छा से न जाने कितने आकर बैठे हुए हैं. किंतु इस मदिरा का पीना आसान नहीं है. जो अपना सर सौंप दे, वही इसका पान कर सकता है-' कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई/ सिर सौंपे सोई पिवै, नहिं तो पिया न जाई.'
सन्दर्भ
(1). डॉ. यश गुलाटी, सूफी कविता की पहचान, दिल्ली 1979, पृ0 68
(2). अलखबानी ( अनूदित पाठ, अनुवाद तथा सम्पादन प्रो. शैलेश ज़ैदी ), पृ0 102
(3). वही, प्रस्तावना भाग, पृ0 100
(4). हसन निजामी, फवायादुलफुवाद, 1856, पृ0 147
(5). अलखबानी, पृ0 101
(6). वही
(7). वही, पृ0 71
(8). श्रीप्रद कुरआन, अल्माइदा, आयत 15-16
(9). वही, सुरा अल-बकरा, आयत 151
(10). अलखबानी, प्रस्तावना भाग, पृ0 92
(11). वही, पृ0 56
(12). वही
(13). वही, पृ0 57
(14). श्रीप्रद कुरआन, सुरा अल-बक़रा, आयत 154
(15)। अलखबानी, अनुवाद भाग, पृ0 87
(16)। कुल्लियाते-शेख इराकी, तेहरान 1383, पृ0 156
************************* क्रमशः

बुधवार, 23 जुलाई 2008

कबीर के अध्ययन की समालोचनात्मक पूर्व-पीठिका / प्रो. शैलेश ज़ैदी


कबीर का काव्य यद्यपि विवाद का विषय नहीं है, फिर भी हिन्दी में कबीर के अध्ययन की स्थिति बहुत स्वस्थ नहीं कही जा सकती. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कबीर विषयक अपनी अवधारणाएँ स्थापित करते समय एक सीमा तक संतुलन बनाए रखने का प्रयास किया. उनका विचार था कि " जो ब्रह्म हिन्दुओं की विचार-पद्धति में ज्ञान मार्ग का एक निरूपण था, उसी को कबीर ने सूफियों के ढर्रे पर उपासना का ही विषय नहीं, प्रेम का विषय भी बनाया और उसकी प्राप्ति के लिए हठयोगियों की साधना का समर्थन किया. इस प्रकार उन्होंने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ, सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया." (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ0 77 ).
शुक्ल जी के ज्ञान की सीमाएं भारतीय ब्रह्मवाद तथा हठयोग साधना तक थीं. सूफियों के एकत्ववादी चिंतन (वह्दतुल्वुजूद का दर्शन) से वे पूर्णतः अनभिज्ञ थे. फिर वैष्णवों के जिस अहिंसावाद की उन्होंने यहाँ चर्चा की है, तुलसी एवं सूर जैसे आदर्श वैष्णव कवियों का मूयांकन करते समय वे इसका उल्लेख तक नहीं करते. वैष्णव इतिहास तो नरसंहार से भरा पड़ा है. राक्षसों का वध, राम-रावण युद्ध, कौरव-पांडव संग्राम, सभी स्थलों पर नरसंहार की लीला है. और यह सब कुछ असत्य को कुचलने और सत्य को स्थापित करने के लिए किया गया है. वैष्णव इतिहास सत्य के लिए प्राण देना और मर-मिटाना नहीं सिखाता, प्राण लेना और शत्रु का नामो-निशान तक मिटा देना सिखाता है. परशुराम जी क्षत्रियों का संहार करते हैं. यहाँ सत्य और असत्य का क्या आधार है, स्पष्ट नहीं होता. वैष्णवों के सभी इष्टदेव सशस्त्र दिखाए जाते हैं, जिन्हें देखकर अहिंसा की कोई कल्पना भी नहीं की जा सकती. देवियाँ भी कहीं रक्त पीती हैं, कहीं रक्त का स्नान करती हैं, कहीं रक्त का टीका लगाती हैं और गले में मुंडमाल पहनती हैं. आचार्य शुक्ल को, सम्भव है यहाँ भी अहिंसावाद की गंध मिली हो. रह गई बात प्रपत्तिवाद की. सूफी प्रभाव के पूर्व प्रपत्ति का प्रवेश व्यावहारिक स्तर पर वैष्णव चिंतन में नहीं मिलता. सूफी चिंतन का तो आधार ही प्रपत्ति एवं निग्रह है.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल की दृष्टि में कबीर में जो कुछ 'बे-ढब' है उसमें सूफियों का प्रभाव है. शुक्ल जी की लीक पीटने वाले हिन्दी आलोचक सूरदास तुलसीदास आदि को रहस्यवादी कहना अनुपयुक्त और असंगत मानते हैं. शुक्ल जी की दृष्टि में "रहस्यवादी चिंतन पैगम्बरी मत मानने वाले देशों में विकसित हुआ. भारत में ऐसी बेढब जरूरत ही नहीं पडी." (चिंतामणि भाग 2, पृ0 81) कबीर और जायसी में रहस्यवाद को मान्यता देने और सूर तथा तुलसी के काव्य को भक्ति की एक विशिष्ट परिभाषा के भीतर मूल्यांकित करने की यह परम्परा किसी तर्क अथवा प्रमाण को स्वीकार करने के पक्ष में नहीं है. कदाचित इसीलिए "कबीर का भक्ति काव्य" अथवा "सूफी भक्ति काव्य" जैसे शीर्षक वाली एक भी पुस्तक हिन्दी में उपलब्ध नहीं है. हो भी नहीं सकती. कारण यह है कि वैष्णव चिंतन एक ही बात को पीढी-दर-पीढी बार-बार दुहराकर केवल यह स्थापित करना चाहता है कि 'प्रस्थानत्रयी' से इतर जो कुछ भी है, उसे भक्ति की परिधि में नहीं रखा जा सकता.
डॉ. रामकुमार वर्मा रहस्यवाद की जड़ें 'हिन्दुओं के अद्वैतवाद" में देखने के पक्षधर हैं. उनके विचार से "कबीर का रहस्यवाद हिन्दुओं के अद्वैतवाद और मुसलमानों के सूफी मत पर आश्रित है." (कबीर का रहस्यवाद, पृ0 25). प्रतीत होता है कि डॉ. रामकुमार वर्मा को अद्वैतवाद से मिलते-जुलते दर्शन की लम्बी स्वस्थ परम्परा सूफियों के यहाँ एक सिरे से दिखायी ही नहीं दी. थोड़े से उलट-फेर के साथ यह आचार्य शुक्ल के विचारों की पुनरावृत्ति मात्र है. जायसी ग्रंथावली में आचार्य शुक्ल ने स्पष्ट लिखा है - "निर्गुण शाखा के संत कबीर, दादू आदि संतों की परम्परा में ज्ञान का जो थोड़ा बहुत अनुभव है, वह भारतीय वेदान्त का है, पर प्रेमतत्व बिल्कुल सूफियों का है."(पृ0 162).डॉ. रामकुमार वर्मा आचार्य शुक्ल की इसी अवधारण को इन शब्दों में व्यक्त करते हैं -"उन्होंने (कबीर ने) अद्वैतवाद से माया और चिंतन तथा सूफी मत से प्रेम लेकर अपने रहस्यवाद की सृष्टि की." (कबीर का रहस्यवाद, पृ0 25). यहाँ मध्ययुगीन इतिहास विशेषज्ञ प्रो. इरफान हबीब की यह अवधारणा भी विचारणीय है कि "कबीर पर शंकर के वेदान्त की बात हम स्वीकार नहीं करते.क्योंकि हमने पाया है कि इस काल तक यह बहुत प्रचारित नहीं था तथा कबीर के पदों पर भी उसका कोई प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता. कबीर के यहाँ 'माया' अपने पूर्ववर्ती रूप 'लालच' के अर्थ में प्रस्तुत की गई है, भ्रम के रूप में नहीं." (मध्यकालीन लोकवादी एकेश्वरवाद तथा उसका मानवीय स्वरुप, अभिनव भारती (अलीगढ़, 1992-93) पृ0 9).
कबीर के असहमतिमूलक आक्रोश को दबा देने की भावना से उन्हें "संसार से विमुखता का उपदेश देने वाला योगी" भी कहा गया. जबकि तथ्य यह है कि कबीर ने जहाँ ब्राह्मणों के वर्चस्व को स्वीकार नहीं किया और उनपर खुलकर चोटें कीं, वहीं योगियों की अनेक बातों को घृणित दृष्टि से देखा और अपनी प्रखर असहमति व्यक्त की. वस्तुतः कबीर को संसार से विमुखता का उपदेश देने वाला योगी वही कह सकता है जो 'संसार' और 'सांसारिकता' के बीच कोई अन्तर नहीं करता. संसार से विमुख होना वैरागियों की प्रवृत्ति है और सांसारिकता का तिरस्कार और विरोध सूफी संतों का स्वभाव है. संसार से विमुख होना अपनी उन दुर्बलताओं की स्वीकृति है जो कहीं भय से और कहीं लोभवश मनुष्य को सच्चाई पर अडिग नहीं रहने देती. यह एक पलायनवादी दृष्टि है. सांसारिकता का तिरस्कार और विरोध वही कर सकता है जो ठोस चारित्रिक धरातल पर खड़ा हो और जिसमें बड़े-से-बड़ा जोखिम उठाने का साहस हो. जिसमें निद्रा और गफलत में पड़े समुदाय को झकझोर कर जगाने का जीवट हो. जो मानवाधिकार के प्रति सजग हो. सांसारिकता मनुष्य की समष्टि-वृत्ति को सुला देती है. सांसारिकता में लिप्त मनुष्य अपने 'स्व' में इतना घिर जाता है कि किसी प्रकार का शोषण करने में उसे संकोच नहीं होता. इसीलिए जो सांसारिकता से विमुख होता है वह कबीर की तरह ऊंचे स्वर में यह कहने का साहस रखता है -"जे घर फूंकै आपना, चलै हमारे साथ."
कबीर को व्यक्तिवादी बताना और उनकी साधना को व्यक्तिगत साधना का नाम देना, कबीर के क़द को छोटा करने का एक सोचा-समझा षड़यंत्र है और यह षड़यंत्र वही कर सकता है जिसे कबीर का एक साधारण जुलाहा होना खलता है. जो अपनी काल्पनिक अटकलों के आधार पर कबीर की जड़ें "बैरागियों" और "जोगियों" में देखने के लिए प्रयत्नशील है. ऐसे लोगों को कबीर की ललकार टीस बनकर चुभती है. "तुम ब्रह्मण होने का गर्व क्यों करते हो, मैं भी काशी का जुलाहा हूँ. तुम मेरे ज्ञान की थाह भी नहीं पा सकते. इसलिए मेरे ज्ञान को चुनौती मत दो."
कबीर के असहमतिमूलक आक्रोश का क्रांतिकारी स्वर आज अपनी प्रासंगिकता को जिस प्रकार गहरा रहा है, वह भी एक वर्ग को सह्य नहीं है. बल इस बात पर दिया जा रहा है कि कबीर का महत्त्व हिन्दी साहित्य में उनके कवि होने के कारण है, इसलिए उनपर विचार अंततः एक कवि के रूप में होना चाहिए. संत कवि और कवि संत रूप में, न कि समाज सुधारक या सामजिक क्रान्तिकारी के रूप में. यह वर्त्तमान साहित्यिक चिंतन के खिलाफ एक खुली साजिश है. इस साजिश में निर्गुण धारा की ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रति उस विरक्ति की स्पष्ट झलक है जो इस शाखा की रचनाओं का साहित्य होना स्वीकार नहीं करती. जिसे इन रचनाकारों की भाषा और शैली 'अव्यवस्थित' और 'ऊट-पटांग' दिखायी देती है. जिसे 'इन कवियों में भक्ति रस में मग्न करने वाली सरसता खोजने पर भी नहीं मिलती.' यह साजिश बार-बार दुहराना चाहती है कि "संस्कृत-बुद्धि, संस्कृत ह्रदय और संस्कृत वाणी का वह विकास इस शाखा में नहीं जो शिक्षित समाज को आकर्षित कर सके."
विचारणीय यह है कि यह 'सुसंस्कृत शिक्षित समाज' कहाँ और किस बौद्धिक गुफा में बंद है जिसे कबीर की रचनाएँ आकृष्ट नहीं करतीं ? विचारणीय यह भी है कि भक्ति रस में मग्न करने वाली सरसता किस दिशा का संकेत करती है और साहित्य के मूल्यांकन के किन प्रतिमानों को प्रतिष्ठित करना चाहती है ? स्पष्ट है कि यह साजिश तथाकथित भक्ति रस में मग्न करने वाली सरसता पर साहित्यिकता की मुहर लगाती है और भक्ति के नाम पर किए जाने वाले ढोंग को उकेरने वाली कविता को साहित्यिकता से खारिज कर देती है.
कबीर हों या जायसी, सूर और तुलसी, साहित्य में इनका महत्त्व निश्चय ही इनके कवि होने के कारण है. इस बात पर भला किसे आपत्ति हो सकती है. किसी धर्म विशेष के लोकरक्षक का चरित्र-काव्य लिखने से कोई कवि बड़ा नहीं हो जाता और रस, छंद, अलंकार के बंधनों को तोड़ कर कम्युनिकेटिव फोर्स को ही कसौटी मान लेने से कोई कवि छोटा नहीं कहा जा सकता. कविता का प्रतिपाद्य मानव होता है, भगवान नहीं. आश्चर्य है कि जिस कविता में आदि, मध्य और अवसान तक घोषित रूप से भगवान ही प्रतिपाद्य हो, वह आचार्य शुक्ल को भक्ति रस में पूरी तरह मग्न कर देती है. किंतु वह कविता जो जन-जन के मनोभावों से जुड़कर आध्यात्मिक स्तर पर गति प्राप्त करती है, जिसमें जीवन के तनावों-संघर्षों का सहानुभूतिपरक यथार्थ चित्रण है, जो मनुष्य और मनुष्य के बीच की भेदक रेखाओं को मिटाते हुए समानता पर आधारित प्रेम संबंधों की पोषक है, जिसमें आत्म-गौरव और आत्मविश्वास को विकसित करने की क्षमता है, आचार्य शुक्ल और उनके जैसे 'सुसंस्कृत शिक्षित समाज' को आकृष्ट नहीं करती. कबीर की कविता मनुष्य में हिंदुत्व अथवा इस्लामत्व नहीं जगाती. वह मनुष्य को उसके मनुष्य होने की पहचान देने का प्रयास करती है. हिंदुत्व और इस्लामत्व जगाने वाली कविता हिन्दुओं और मुसलमानों के लिए अलग-अलग पूजनीय और आदरणीय तो हो सकती है, साहित्य की परिधियों में रखकर उसे मूल्यांकित नहीं किया जा सकता.
कबीर ने अपने समकालीन हिन्दुओं और मुसलामानों से आँखें मिलाकर बात की. संवाद की स्थितियां बनायीं. उनकी कथनी और करनी का अन्तर देखकर क्षुब्ध भी हुए. वे चाहते थे कि यह मनुष्य जिसे परमात्मा ने सोचने-समझने और निर्णय लेने की शक्ति प्रदान की है, सुषुप्तावस्था से बाहर निकले. अपने मनुष्य होने के गौरव को समझे. बाह्य प्रदर्शनों से जुडी आस्थाओं की अलगाववादी जंजीरें तोड़कर धर्म की मूल चेतना से साक्षात्कार करे और परम सत्ता के एकत्व को मन की गहराइयों से पहचानने का प्रयास करे.
कबीर के समय तक सिद्धों, नाथों और योगियों के विभिन्न सम्प्रदाय जिनका सीधा टकराव ब्राह्मण धर्म से था, आम जनता में अपनी साख बना चुके थे. तांत्रिक बौद्ध धर्म से विक्सित सहजिया सम्प्रदाय डॉ. शशिभूषण दास गुप्त की दृष्टि में 'गुह्य साधना वाले योगि-सम्प्रदाय का बौद्ध प्रभावित रूप था' ( आब्स्क्योर रेलिजस कल्ट्स [1962], भूमिका, पृ0 33-34). इस गुह्य साधना का प्रवेश बंगाल के 'बाउल सम्प्रदाय', वैष्णव सहजिया सम्प्रदाय, नाथ सम्प्रदाय और धर्म सम्प्रदाय में तो हो ही चुका था, सूफी साधकों में भी इसके प्रति पर्याप्त आकर्षण था. वह ब्राह्मण धर्म जो दसवीं शताब्दी ई० तक अपनी गहरी जड़ें जमा चुका था, इन सम्प्रदायों के ब्राह्मण तथा वेद विरोधी रुख से ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी तक चरमरा गया था. वैष्णव सहजिया सम्प्रदाय की भाँति यद्यपि सहजिया सूफी नामक कोई सम्प्रदाय विकसित नहीं हुआ था, किंतु सैद्धांतिक स्तर पर चिश्तिया सम्प्रदाय के भीतर-भीतर अनेक ऐसी साधना पद्धतियाँ प्रवेश कर चुकी थीं जिनके प्रकाश में कुछ भारतीय सूफियों को सहजिया सूफियों की श्रेणी के अंतर्गत रखा जा सकता है.
सरहपाद ने अपने समय के धार्मिक वातावरण का जिन शब्दों में चित्रण किया है यदि उसका सूक्ष्मावलोकन किया जाय तो स्पष्ट संकेत मिलता है कि कबीर के समय तक उसकी अनेक बातें विद्यमान थीं. शैव, जैन तथा क्षपणक आदि मतावलंबियों के प्रभाव में पर्याप्त कमी आ गई थी और नाथ सम्प्रदाय के विकास के साथ इन सम्प्रदायों में प्रचलित अनेक पद्धतियाँ नाथ योगियों ने अपना ली थीं. सहज साधना में 'तीनों भुवनों की रचना करने वाले चित्त की शुद्धि' पर विशेष बल दिया जाता था. सरहपाद की अवधारणा थी कि 'जब नाद, बिन्दु अथवा चन्द्र और सूर्य के महलों का अस्तित्व नहीं और चित्तराज भी स्वभावतः मुक्त है, तब फिर सरल मार्ग का परित्याग कर वक्र मार्ग ग्रहण करना कहाँ तक उचित कहा जा सकता है. जो कुछ ब्रह्माण्ड में है वह सभी पिंड में भी है. परम तत्व की प्राप्ति के लिए पिंड पर विजय परम आवश्यक है.' ( हजारी प्रसाद द्विवेदी, नाथ सम्प्रदाय, पृ0 14). गोरखनाथ के समय तक नाथयोगियों के मध्य सहजयानी एवं शैव परम्पराएं पूरी तरह प्रवेश पा चुकी थीं.
तेरहवीं शताब्दी ईस्वी के प्रारंभ से ही सूफियों और योगियों के मध्य वैचारिक आदान-प्रदान और परस्पर चुनौतियों की स्थिति बनने लगी थी. योगियों और सिद्धों के चमत्कारों की चर्चा भारत से बाहर गज़नी, ईरान, खुरासान और तुर्किस्तान में भी होती थी. बाबा फरीद की खानकाह में बड़ी संख्या में योगी आते थे. शेख निजामुद्दीन औलिया प्रत्येक धर्म को आदर की दृष्टि से देखते थे. उन्होंने कहा भी था -"हर क़ौमे-रास्त-राहे, दीने व् किब्लागाहे" अर्थात प्रत्येक धर्म का अपना सीधा मार्ग है, अपनी आचार संहिता है और अपना उपासना स्थल है. वे योगियों और सिद्धों की गुह्य साधना से बहुत अधिक प्रभावित थे.(विस्तार के लिए देखिये हसन निजामीकृत फवायादुल-फुवाद पृ0 250-258). उन्हें इन योगियों से ज्ञान प्राप्त करने में सुखद आनंद का अनुभव होता था. शेख नसीरुद्दीन (मृ0 1366 ई0) ने श्वांस-प्रश्वांस के नियमन का ज्ञान योगियों से प्राप्त किया था. ( हमीद कलंदर, खैरुल-मजालिस,पृ 59-60 ). सैयद मुहम्मद अशरफ जहांगीर सिमनानी (मृ0 1346 ई0) के ग्रंथों में योगियों से संपर्क की अनेक झांकियां उपलब्ध हैं.
पंद्रहवीं शताब्दी तक आते-आते गोरखपंथी योगियों ने आन्दोलन चलाया कि समस्त पीर-पैगम्बर गोरखनाथ के चेले हैं. उनकी यह मान्यता भी चर्चा का विषय बनी कि हज़रत मुहाम्मद (स.) का पालन-पोषण गोरखनाथ ने किया था. उनका यह भी दावा था कि गोरखनाथ का मूल नाम 'बाबा रैन हाजी' था. ये गोरखपंथी मुसलामानों के साथ रोजा रखते थे और नमाज़ पढ़ते थे तथा हिन्दुओं के समूह में पूजा-पाठ करते थे. (मुहसिन फानी, दबिस्ताने-मज़ाहिब, (लखनऊ 1904), पृ0 179-80). इब्ने-बतूता ने 1335 ई0 में मुहम्मद बिन तुगलक के दरबार में एक योगी को हवा में उड़ते देखा था.(सैयद अतहर अब्बास रिज़वी, तुगलक कालीन भारत, भाग 1, पृ0 268).
महत्वपूर्ण बात यह है कि सूफियों और योगियों के मध्य वैचारिक आदान-प्रदान की भाषा हिन्दवी थी. शेख हमीदुद्दीन नागोरी और बाबा फरीद के घरों में भी हिन्दवी का प्रचलन था. आश्चर्य की बात यह है कि पंद्रहवीं शताब्दी ईस्वी तक सूफियों और वैष्णव आचार्यों के मध्य आपसी बात-चीत का कोई संकेत नहीं मिलता. वैष्णव भक्तों ने योगियों के साथ भी वैसे सम्बन्ध विकसित नहीं किए जैसे सूफियों के योगियों के साथ थे. वैष्णव परम्परा ब्राह्मणेतर तत्वचिन्तकों के समाज से पूरी तरह कटी हुई थी. कबीर के अध्ययन के लिए इन तथ्यों को दृष्टि में रखना अनिवार्य है.
ध्यान देने की बात यह भी है कि चौदहवीं शताब्दी ईस्वी में सूफियों, सिद्धों और नाथयोगियों से इतर तदयुगीन सामजिक जीवन में क़ल्न्दारों, हैदारियों और ज़्वालकियों की सशक्त भूमिका थी. यह लोग सामान्य रूप से दरवेश कहलाते थे. हैदरी कलंदर गर्दन और कान में लोहे के कड़े पहनते थे और नमाज़-रोजा जैसी किसी इस्लामी इबादत से कोई सम्बन्ध नहीं रखते थे. कुछ कलंदर ऐसे भी थे जो दाढी, मूछें और भवें तक मुंडवा लेते थे. इनके आक्रोश से सभी आतंकित थे और इनके विरुद्ध मुंह खोलने का साहस किसी में नहीं था. कलंदर शेख अबूबक्र तूसी इन्द्रप्रस्थ के समीप यमुना तट पर खानकाह बनाकर रहते थे. बू अली कलंदर (मृ0 १३२४ ई0) जिनकी आस्थाएं कबीर से बहुत भिन्न नहीं थीं, विशुद्ध एकत्ववादी (मुवह्हिद) थे. भक्ति के भावावेश में उन्होंने अपनी सभी पुस्तकें नदी में फ़ेंक दीं और दरवेश बन गए. कबीर भी बू अली कंदर की भाँति -"कबीर पढिबा दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ" का सुझाव देते हैं. दुखद स्थिति यह है कि मध्य युगीन हिन्दी साहित्य के अध्येता कबीर का अध्ययन करते समय कबीर युगीन समाज के इन महत्वपूर्ण पहलुओं पर सिरे से विचार ही नहीं करते. मेरी दृष्टि में कबीर का अध्ययन कबीर साहित्य की पूर्वपीठिका को समझे बिना किया ही नहीं जा सकता.
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'हिन्दी के मध्ययुगीन मुस्लिम कवि' पुस्तक से साभार