रामानुजाचार्य, पातंजलि, विष्णुपुराण, नारद भक्ति सूत्र , शांडिल्य भक्ति सूत्र आदि के सन्दर्भों से भारतीय चिंतन परम्परा में भक्ति के स्वरुप का जिस प्रकार विवेचन किया जाता है, उसकी कोई ठोस परम्परा हिन्दी कविता में नहीं दिखाई देती. कबीर के समय तक रामानंद के तमाम प्रयासों के बावजूद वैष्णव भक्ति का उत्तरी भारत में कोई स्पष्ट जनाधार नहीं था. गोरखनाथ की निरंतर गहराती छवि एवं सूफियों की प्रेममूलक भक्ति का कोमल मानवीय स्पर्श लोकमानस को अपने चुम्बकीय प्रभाव से आलोकित कर रहा था. एक ओर साधनामूलक ज्ञान का अध्यात्मपरक आकर्षण था तो दूसरी ओर ह्रदय में परम सत्ता की अनुभूति से ज्योतित प्रेममूलक भक्ति की निरंतर बढ़ती लोकप्रियता थी. पुस्तकीय एवं बौद्धिक ज्ञान से उत्पन्न वाद-विवाद एवं तर्क-वितर्क अपनी सार्थकता खो बैठे थे. कबीर की भक्ति के स्वरुप का विवेचन एवं विश्लेषण इसी पृष्भूमि में किया जाना चाहिए.
1. प्रेममूलक भक्ति
कबीर की गणना भले ही ज्ञानाश्रयी भक्तों की पंक्ति में रखकर की जाय किन्तु कबीर की भक्ति का सार-तत्व एकान्तिक सत्ता के प्रति अनन्य प्रेम ही है. इस प्रेम के 'ढाई आखर' तात्विक ज्ञान का मूलाधार हैं. किंतु इन ढाई अक्षरों की शिक्षा किसी परंपरागत शास्त्रीय पाठशाला में नहीं दी जाती. इन्हें पढने के लिए सद गुरु की कृपा अनिवार्य है. पर इस सद गुरु की प्राप्ति सभी को नहीं हो पाती. यह तो प्रभू की कृपा से ही प्राप्त हो सकता है- 'जब गोविन्द कृपा करी/ तब गुरू मिलिया आइ.'
1.1 सद् गुरू की भूमीका
हिन्दी आलोचक विशेष रूप से इस तथ्य पर बल देते हैं और वैसे भी सामान्य रूप से यह माना जाता है कि ' गुरू की भक्ति का जैसा रूप भारत वर्ष में है, वैसा कहीं नहीं है।' ( 1) इसमें संदेह नहीं कि 'श्वेताश्वतर' एवं ' मुण्डकोपनिषद ' में गुरू की महत्ता को स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया गया है. किंतु गुरूवाद की कोई सुदृढ़ परम्परा वैष्णव काव्य साहित्य में नहीं मिलती. गुरू की महत्ता को रेखांकित करना और बात है और गुरू को व्यावहारिक स्तर पर ब्रह्म जैसा अथवा ब्रह्म समझ कर और मानकर उसकी उपासना करना और बात है। तुलसी और सूर जैसे सगुण भक्त भी गुरु की महिमा का बखान करते नहिं दिखायी देते. भारत के साधना मार्गों में गुरूवाद की ठोस परम्परा निश्चित रूप से मिलती है और योगियों में तो गुरू के प्रति सम्मान भावना अनिवार्य सी प्रतीत होती है. किंतु सूफी साहित्य में गुरू की महत्ता का जैसा आदर्श दृष्टिगत होता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है. वहां परम सत्ता और गुरू के मध्य अभेदत्व की स्थिति स्पष्ट देखी जा सकती है. मौलाना जलालुद्दीन रूमी ने अपने गुरू शम्स तबरेज़ के प्रति अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किए हैं-
पीरे-मन मुरीदे-मन, दर्दे-मन, दवाए मन .
रास बेगुफ्त्म ईं सुखन, शम्से-मन, खुदाए-मन.(2)
अर्थात्- मैं ये बात सच कहता हूँ कि मेरा गुरू मेरा मुरीद, मेरी पीड़ा मेरी औषधि मेरा शम्स है जो मेरा खुदा है.
प्रभु के प्रेम में उन्मत्त मलिक मसऊद ने अपने गुरू को संबोधित करते हुए कहा- 'तेरी भृकुटियों के किबला की ओर सिजदा करना (मेरे लिए) अनिवार्य है (3) (सजदा बसूए क़िब्लये अब्रूए तस्त फ़र्ज़ ). प्रख्यात सूफी कवि अमीर खुसरो ने भी अपने गुरू निज़ामुद्दीन औलिया के प्रति ऐसे ही विचार व्यक्त किए थे- 'मैं अपना किबला' (मक्के का वह पवित्र स्थान जिसकी ओर मुंह करके मुसलमान नमाज़ पढ़ते हैं) तिरछी टोपी वाले (हज़रत निजामुदीन औलिया तिरछी टोपी पहनते थे) की ओर सीधा कर लेता हूँ.(4) (मन किबला रास्त कर्दम बर सिम्ते कज कुलाहे) . निजामुद्दीन औलिया के अनेक शिष्य अपने गुरू को सिजदा किया करते थे. शेख जलालुद्दीन तबरेज़ी अपने गुरू शेख शहाबुद्दीन के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित थे. गुरू सेवा में लीन रहना उनका धर्म था. अपने गुरू की हज यात्रा के समय उन्हें गर्म भोजन देने के लिए वे भोजन के बर्तन की अंगीठी सर पर रखकर गुरू के पीछे-पीछे चलते थे.(5) शेख अब्दुल कुद्दूस ने 'रुश्दनामा' में ऐनुल्कुज्जात हमदानी का यह मत उद्धृत किया है- 'फकीर (संत) ही अल्लाह है, सूफी ही अल्ल्लाह है, मार्ग दर्शक ही अल्लाह है, गुरू ही अल्लाह है. (6)(अल्फकीर हुवल्लाह, अस्सूफी हुवल्लाह, अल्हादी हुवल्लाह, अश्शैख हुवल्लाह)
कबीर काव्य में गुरू की महत्ता इसी पृष्ठभूमि में देखी जा सकती है.कबीर की निश्चित अवधारणा थी कि 'गुरू गोविन्द तो एक हैं, दूजा यह आकार' अर्थात् जो रूप और आकार के भेद में पड़ गया वह गुरू और परमात्मा के मध्य अभेदत्व की स्थिति को नहीं समझ सकता. सूफी साधकों तथा कवियों में इस प्रसंग में नाबीश्री को पूर्ण मानव, सिद्ध पुरूष, सद गुरु और बिना मीम का अहमद अर्थात 'अहद' अर्थात् आकार से मुहम्मद और बिना आकार के प्रभु मानने की परम्परा रही है. इस सम्बन्ध में कबीर के समकालीन हिन्दी सूफी कवि अलखदास ने नाबीश्री की कुछ हदीस उद्धृत की है(7) जो द्रष्टव्य है-
1- मुझसे अल्लाह ने कहा कि मैं तुमसे तुम्हारी सत्ता से भी अधिक निकट हूँ.
2- जिसने मुझे देखा उसने परम सत्ता को देखा.
3- मैं अहमद हूँ बिना मीम का.
4- ऐ मेरे बन्दे ! तू मेरा हो जा, जिससे कि मैं तेरा हो जाऊं और जो कुछ मेरा है वह सब तेरा हो जाय.
श्रीप्रद कुरआन में नबीश्री को ज्योतिपुंज कहा गया है. (8) जो कि ईश्वर के प्रकाश का सत्व है और बताया गया है कि बौद्धिकता और पुस्तकीय ज्ञान से रहित समुदाय से चुनकर मुहम्मद को नबी बनाया गया जो सर्व सामान्य को प्रभु की आयतें सुनाते हैं अर्थात प्रभु के गूढ़ एवं दिव्य रहस्यों से युक्त शब्दज्ञान से ज्योतित करते हैं और उनके हृदयों को परिष्कृत करते हैं जिससे यह मनुष्य सांसारिक विषय विकारों से मुक्त रह सके.(9) इस प्रकार नबीश्री में सद् गुरु के वे सभी गुण विद्यमान हैं जिनकी चर्चा सूफियों और संतों ने की है.
कबीर का सद् गुरु कोई व्यक्ति विशेष न होकर विशिष्ट गुणों का पुंज है. वह गंभीर है, गौरव पूर्ण है, अपने स्वरुप के साथ अपने शिष्य को इस प्रकार मिला लेता है जैसे आटे में नमक मिल जाता है. इस स्थिति को प्राप्त करते ही जाति-पांति, कुल इत्यादि सब मिट जाता है. शिष्य का कोई नाम नहीं रह जाता- 'कबीर गुरु गरवा मिल्या, रलि गया आंटे लूँणि/ जाति पांति कुल सब मिटे, नाँव धरोगे कूँणि.' प्रतीत होता है जैसे कबीर ने सिद्ध पुरूष के रूप में नबीश्री अथवा किसी अन्य 'वली' को पाकर उन्हें सदगुरु के रूप में स्वीकार कर लिया हो. अध्यात्म जगत में ऐसा अनेक साधक करते आए हैं. ' खोजत- खोजत' सद् गुरु पाया’ के माध्यम से कबीर ने कुछ ऐसा ही संकेत भी किया है.
कबीर का गुरू ज्ञान प्रकाश से प्रकाशित (ज्ञान प्रकास्या गुरू) है. इसलिए वह शिष्य के हाथ में तेल से भरा दीपक, जिसकी बत्ती कभी नहीं घटती, पकड़ा देता है जिससे कि वह सांसारिकता के हाट में क्रय-विक्रय की प्रक्रिया से पूरी तरह मुक्त रहकर दीपक के प्रकाश से मार्ग दर्शन प्राप्त करता रहता है- 'दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघटट् / पूरा किया बिसाहूणा , बहुरि न आवौं हटट् .'.
कबीर अपने उस गुरू पर मुग्ध हैं, सब कुछ न्योव्छावर कर देने के पक्ष में हैं. जिसने अस्थिचर्ममय शरीर को ऐसे दिव्य गुणों की ज्योति से ज्योतित कर दिया कि मनुष्य रूप में विषय विकारों से युक्त शिष्य कुछ ही क्षणों में पूजनीय बन गया- 'बलिहारी गुरु आपनें' द्यो हाड़ी कै बार, / जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार.'
कबीर का गुरु जिस समय मार्ग दर्शन हेतु शिष्य के हृदय को शब्द बाण से बेधता है तो ज्ञान की अपूर्व ज्योति पाकर वह ऐसा स्तब्ध रह जाता है कि उसकी ज़बान गूंगी हो जाती है, कान बहरे हो जाते हैं, पाँव चलने के योग्य नहीं रह जाते और वह पूर्ण रूप से बावला हो जाता है- 'गूंगा हुआ, बावला, बहरा हुआ कान/ पांऊँ थैं पंगुल भया, सतगुरु मार्या बान. ' कबीर का सदगुरू सच्चा शूरवीर है. (सतगुरु साचा सूरिवां). उसका निशाना कभी चूकता नहीं . उसका चलाया हुआ तीर शरीर में भीतर तक जाकर धंस जाता है (भीतरि रह्या सरीर) और जब वह मूठ को सीधी करके प्रेम के अग्निवाण से शिष्य के शरीर को बेधता है तो दावाग्नि सी फूट पड़ती है और विषय वासना के वृक्ष की टहनियां चिटख-चिटख कर जलने लगती हैं और सम्पूर्ण जंगल जलकर राख हो जाता है- 'सतगुरु मारया बाण भरि, धरि करि सूधी मूठि/ अंगि उघाडै लागिया, गयी दवा सूँ फूटि.' कबीर ने इसी से मिलते-जुलते भाव अन्य स्थलों पर भी व्यक्त किए हैं-' प्रकट प्रकास ज्ञान गुरुगमि थैं, ब्रह्म अगिनि परजारी. ' अथवा 'कहें कबीर गुरु दिया पलीता, सो झल बिरलै देखी.'
कबीर का दृढ़ विश्वास है कि गुरु के वचनों के रस में जब शिष्य पूरी तरह डूब जाता है तभी वह इस योग्य हो पता है कि प्रभु के नाम से लौ लगा सके- ' गुरु बचना मंझि समावै, तब राम नाम लौ ल्यावै।' कबीर की दृष्टि में सबकुछ गुरु की कृपा पर निर्भर करता है. गुरु की महिमा से सूई की नोक से हाथी भी आसानी से आ जा सकता है- ' गुरु प्रसाद सूई के नाकैं, हस्ती आवै जाहिं.' किंतु ऐसा गुरु आसानी से प्राप्त नहीं होता. कबीर के समकालीन कवि अलखदास ने अपनी एक चिट्ठी में अब्दुर्रहमान सूफी को लिखा कि जिस समय गुरु का 'जमाल' (सौन्दर्य) सच्चे शिष्य के लिए प्रभु के सौन्दर्य का दर्पण बन जाय तो सच्चा शिष्य गुरु पूजक बन जाता है. यह शिष्य खुदापरस्त शिष्य से श्रेष्ठ होता है. (10) कबीर 'गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, वाली साखी में एक ऐसे ही शिष्य के रूप में अपना परिचय कराते हैं. गुरु की तलाश में भटकने वाले कबीर की, कितने ही महापुरुषों में सदगुरु को खोजने के बाद वास्तविक सदगुरु से भेंट हुई- 'अनेक जन का गुरु-गुरु करता , सतगुरु तब भेंटाना.'इस पंक्ति के आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि प्रारम्भ में शेख़ तक़ी ही नहीं अन्य अनेक सूफियों-संतों को कबीर ने गुरु माना होगा किंतु एकत्ववाद का ज्ञान हो जाने पर उनकी आस्था से मेल न खाने के कारण उन्हें छोड़ दिया होगा. ध्यान रहे कि अस्तित्व के एकत्व में आस्था रखने वाले कबीर अपने समय के गुरु होने का दंभ भरने वाले ज्ञान रहित तथा चक्षुविहीन गुरुओं से भली प्रकार परिचित थे और इसके कुपरिणामों से भी अनभिज्ञ नहीं थे-'जाका गुरु भी आंधला, चेला खरा निरंध./ अन्धै अँधा ठेलिया, दुन्यु कूप पडंध.' यह साखी कबीर के एक अन्य समकालीन कवि शेख़ नूर के नाम से भी मिलती है जिसका उल्लेख अलाखदास ने रुश्दनामा (अलखबानी ) में किया है।
1. प्रेममूलक भक्ति
कबीर की गणना भले ही ज्ञानाश्रयी भक्तों की पंक्ति में रखकर की जाय किन्तु कबीर की भक्ति का सार-तत्व एकान्तिक सत्ता के प्रति अनन्य प्रेम ही है. इस प्रेम के 'ढाई आखर' तात्विक ज्ञान का मूलाधार हैं. किंतु इन ढाई अक्षरों की शिक्षा किसी परंपरागत शास्त्रीय पाठशाला में नहीं दी जाती. इन्हें पढने के लिए सद गुरु की कृपा अनिवार्य है. पर इस सद गुरु की प्राप्ति सभी को नहीं हो पाती. यह तो प्रभू की कृपा से ही प्राप्त हो सकता है- 'जब गोविन्द कृपा करी/ तब गुरू मिलिया आइ.'
1.1 सद् गुरू की भूमीका
हिन्दी आलोचक विशेष रूप से इस तथ्य पर बल देते हैं और वैसे भी सामान्य रूप से यह माना जाता है कि ' गुरू की भक्ति का जैसा रूप भारत वर्ष में है, वैसा कहीं नहीं है।' ( 1) इसमें संदेह नहीं कि 'श्वेताश्वतर' एवं ' मुण्डकोपनिषद ' में गुरू की महत्ता को स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया गया है. किंतु गुरूवाद की कोई सुदृढ़ परम्परा वैष्णव काव्य साहित्य में नहीं मिलती. गुरू की महत्ता को रेखांकित करना और बात है और गुरू को व्यावहारिक स्तर पर ब्रह्म जैसा अथवा ब्रह्म समझ कर और मानकर उसकी उपासना करना और बात है। तुलसी और सूर जैसे सगुण भक्त भी गुरु की महिमा का बखान करते नहिं दिखायी देते. भारत के साधना मार्गों में गुरूवाद की ठोस परम्परा निश्चित रूप से मिलती है और योगियों में तो गुरू के प्रति सम्मान भावना अनिवार्य सी प्रतीत होती है. किंतु सूफी साहित्य में गुरू की महत्ता का जैसा आदर्श दृष्टिगत होता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है. वहां परम सत्ता और गुरू के मध्य अभेदत्व की स्थिति स्पष्ट देखी जा सकती है. मौलाना जलालुद्दीन रूमी ने अपने गुरू शम्स तबरेज़ के प्रति अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किए हैं-
पीरे-मन मुरीदे-मन, दर्दे-मन, दवाए मन .
रास बेगुफ्त्म ईं सुखन, शम्से-मन, खुदाए-मन.(2)
अर्थात्- मैं ये बात सच कहता हूँ कि मेरा गुरू मेरा मुरीद, मेरी पीड़ा मेरी औषधि मेरा शम्स है जो मेरा खुदा है.
प्रभु के प्रेम में उन्मत्त मलिक मसऊद ने अपने गुरू को संबोधित करते हुए कहा- 'तेरी भृकुटियों के किबला की ओर सिजदा करना (मेरे लिए) अनिवार्य है (3) (सजदा बसूए क़िब्लये अब्रूए तस्त फ़र्ज़ ). प्रख्यात सूफी कवि अमीर खुसरो ने भी अपने गुरू निज़ामुद्दीन औलिया के प्रति ऐसे ही विचार व्यक्त किए थे- 'मैं अपना किबला' (मक्के का वह पवित्र स्थान जिसकी ओर मुंह करके मुसलमान नमाज़ पढ़ते हैं) तिरछी टोपी वाले (हज़रत निजामुदीन औलिया तिरछी टोपी पहनते थे) की ओर सीधा कर लेता हूँ.(4) (मन किबला रास्त कर्दम बर सिम्ते कज कुलाहे) . निजामुद्दीन औलिया के अनेक शिष्य अपने गुरू को सिजदा किया करते थे. शेख जलालुद्दीन तबरेज़ी अपने गुरू शेख शहाबुद्दीन के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित थे. गुरू सेवा में लीन रहना उनका धर्म था. अपने गुरू की हज यात्रा के समय उन्हें गर्म भोजन देने के लिए वे भोजन के बर्तन की अंगीठी सर पर रखकर गुरू के पीछे-पीछे चलते थे.(5) शेख अब्दुल कुद्दूस ने 'रुश्दनामा' में ऐनुल्कुज्जात हमदानी का यह मत उद्धृत किया है- 'फकीर (संत) ही अल्लाह है, सूफी ही अल्ल्लाह है, मार्ग दर्शक ही अल्लाह है, गुरू ही अल्लाह है. (6)(अल्फकीर हुवल्लाह, अस्सूफी हुवल्लाह, अल्हादी हुवल्लाह, अश्शैख हुवल्लाह)
कबीर काव्य में गुरू की महत्ता इसी पृष्ठभूमि में देखी जा सकती है.कबीर की निश्चित अवधारणा थी कि 'गुरू गोविन्द तो एक हैं, दूजा यह आकार' अर्थात् जो रूप और आकार के भेद में पड़ गया वह गुरू और परमात्मा के मध्य अभेदत्व की स्थिति को नहीं समझ सकता. सूफी साधकों तथा कवियों में इस प्रसंग में नाबीश्री को पूर्ण मानव, सिद्ध पुरूष, सद गुरु और बिना मीम का अहमद अर्थात 'अहद' अर्थात् आकार से मुहम्मद और बिना आकार के प्रभु मानने की परम्परा रही है. इस सम्बन्ध में कबीर के समकालीन हिन्दी सूफी कवि अलखदास ने नाबीश्री की कुछ हदीस उद्धृत की है(7) जो द्रष्टव्य है-
1- मुझसे अल्लाह ने कहा कि मैं तुमसे तुम्हारी सत्ता से भी अधिक निकट हूँ.
2- जिसने मुझे देखा उसने परम सत्ता को देखा.
3- मैं अहमद हूँ बिना मीम का.
4- ऐ मेरे बन्दे ! तू मेरा हो जा, जिससे कि मैं तेरा हो जाऊं और जो कुछ मेरा है वह सब तेरा हो जाय.
श्रीप्रद कुरआन में नबीश्री को ज्योतिपुंज कहा गया है. (8) जो कि ईश्वर के प्रकाश का सत्व है और बताया गया है कि बौद्धिकता और पुस्तकीय ज्ञान से रहित समुदाय से चुनकर मुहम्मद को नबी बनाया गया जो सर्व सामान्य को प्रभु की आयतें सुनाते हैं अर्थात प्रभु के गूढ़ एवं दिव्य रहस्यों से युक्त शब्दज्ञान से ज्योतित करते हैं और उनके हृदयों को परिष्कृत करते हैं जिससे यह मनुष्य सांसारिक विषय विकारों से मुक्त रह सके.(9) इस प्रकार नबीश्री में सद् गुरु के वे सभी गुण विद्यमान हैं जिनकी चर्चा सूफियों और संतों ने की है.
कबीर का सद् गुरु कोई व्यक्ति विशेष न होकर विशिष्ट गुणों का पुंज है. वह गंभीर है, गौरव पूर्ण है, अपने स्वरुप के साथ अपने शिष्य को इस प्रकार मिला लेता है जैसे आटे में नमक मिल जाता है. इस स्थिति को प्राप्त करते ही जाति-पांति, कुल इत्यादि सब मिट जाता है. शिष्य का कोई नाम नहीं रह जाता- 'कबीर गुरु गरवा मिल्या, रलि गया आंटे लूँणि/ जाति पांति कुल सब मिटे, नाँव धरोगे कूँणि.' प्रतीत होता है जैसे कबीर ने सिद्ध पुरूष के रूप में नबीश्री अथवा किसी अन्य 'वली' को पाकर उन्हें सदगुरु के रूप में स्वीकार कर लिया हो. अध्यात्म जगत में ऐसा अनेक साधक करते आए हैं. ' खोजत- खोजत' सद् गुरु पाया’ के माध्यम से कबीर ने कुछ ऐसा ही संकेत भी किया है.
कबीर का गुरू ज्ञान प्रकाश से प्रकाशित (ज्ञान प्रकास्या गुरू) है. इसलिए वह शिष्य के हाथ में तेल से भरा दीपक, जिसकी बत्ती कभी नहीं घटती, पकड़ा देता है जिससे कि वह सांसारिकता के हाट में क्रय-विक्रय की प्रक्रिया से पूरी तरह मुक्त रहकर दीपक के प्रकाश से मार्ग दर्शन प्राप्त करता रहता है- 'दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघटट् / पूरा किया बिसाहूणा , बहुरि न आवौं हटट् .'.
कबीर अपने उस गुरू पर मुग्ध हैं, सब कुछ न्योव्छावर कर देने के पक्ष में हैं. जिसने अस्थिचर्ममय शरीर को ऐसे दिव्य गुणों की ज्योति से ज्योतित कर दिया कि मनुष्य रूप में विषय विकारों से युक्त शिष्य कुछ ही क्षणों में पूजनीय बन गया- 'बलिहारी गुरु आपनें' द्यो हाड़ी कै बार, / जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार.'
कबीर का गुरु जिस समय मार्ग दर्शन हेतु शिष्य के हृदय को शब्द बाण से बेधता है तो ज्ञान की अपूर्व ज्योति पाकर वह ऐसा स्तब्ध रह जाता है कि उसकी ज़बान गूंगी हो जाती है, कान बहरे हो जाते हैं, पाँव चलने के योग्य नहीं रह जाते और वह पूर्ण रूप से बावला हो जाता है- 'गूंगा हुआ, बावला, बहरा हुआ कान/ पांऊँ थैं पंगुल भया, सतगुरु मार्या बान. ' कबीर का सदगुरू सच्चा शूरवीर है. (सतगुरु साचा सूरिवां). उसका निशाना कभी चूकता नहीं . उसका चलाया हुआ तीर शरीर में भीतर तक जाकर धंस जाता है (भीतरि रह्या सरीर) और जब वह मूठ को सीधी करके प्रेम के अग्निवाण से शिष्य के शरीर को बेधता है तो दावाग्नि सी फूट पड़ती है और विषय वासना के वृक्ष की टहनियां चिटख-चिटख कर जलने लगती हैं और सम्पूर्ण जंगल जलकर राख हो जाता है- 'सतगुरु मारया बाण भरि, धरि करि सूधी मूठि/ अंगि उघाडै लागिया, गयी दवा सूँ फूटि.' कबीर ने इसी से मिलते-जुलते भाव अन्य स्थलों पर भी व्यक्त किए हैं-' प्रकट प्रकास ज्ञान गुरुगमि थैं, ब्रह्म अगिनि परजारी. ' अथवा 'कहें कबीर गुरु दिया पलीता, सो झल बिरलै देखी.'
कबीर का दृढ़ विश्वास है कि गुरु के वचनों के रस में जब शिष्य पूरी तरह डूब जाता है तभी वह इस योग्य हो पता है कि प्रभु के नाम से लौ लगा सके- ' गुरु बचना मंझि समावै, तब राम नाम लौ ल्यावै।' कबीर की दृष्टि में सबकुछ गुरु की कृपा पर निर्भर करता है. गुरु की महिमा से सूई की नोक से हाथी भी आसानी से आ जा सकता है- ' गुरु प्रसाद सूई के नाकैं, हस्ती आवै जाहिं.' किंतु ऐसा गुरु आसानी से प्राप्त नहीं होता. कबीर के समकालीन कवि अलखदास ने अपनी एक चिट्ठी में अब्दुर्रहमान सूफी को लिखा कि जिस समय गुरु का 'जमाल' (सौन्दर्य) सच्चे शिष्य के लिए प्रभु के सौन्दर्य का दर्पण बन जाय तो सच्चा शिष्य गुरु पूजक बन जाता है. यह शिष्य खुदापरस्त शिष्य से श्रेष्ठ होता है. (10) कबीर 'गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, वाली साखी में एक ऐसे ही शिष्य के रूप में अपना परिचय कराते हैं. गुरु की तलाश में भटकने वाले कबीर की, कितने ही महापुरुषों में सदगुरु को खोजने के बाद वास्तविक सदगुरु से भेंट हुई- 'अनेक जन का गुरु-गुरु करता , सतगुरु तब भेंटाना.'इस पंक्ति के आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि प्रारम्भ में शेख़ तक़ी ही नहीं अन्य अनेक सूफियों-संतों को कबीर ने गुरु माना होगा किंतु एकत्ववाद का ज्ञान हो जाने पर उनकी आस्था से मेल न खाने के कारण उन्हें छोड़ दिया होगा. ध्यान रहे कि अस्तित्व के एकत्व में आस्था रखने वाले कबीर अपने समय के गुरु होने का दंभ भरने वाले ज्ञान रहित तथा चक्षुविहीन गुरुओं से भली प्रकार परिचित थे और इसके कुपरिणामों से भी अनभिज्ञ नहीं थे-'जाका गुरु भी आंधला, चेला खरा निरंध./ अन्धै अँधा ठेलिया, दुन्यु कूप पडंध.' यह साखी कबीर के एक अन्य समकालीन कवि शेख़ नूर के नाम से भी मिलती है जिसका उल्लेख अलाखदास ने रुश्दनामा (अलखबानी ) में किया है।
1.2. प्रेम का स्वरुप एवं महत्त्व
कबीर काव्य के अध्ययन से एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि उनकी रचनाओं में दिव्य आत्मतत्व के प्रति प्रेममूलक भावानुभूति की तीव्रता मानव को उसके स्थूल सीमाभाव से निकालकर उसके भीतर विद्यमान दैवी स्वरुप के साथ समरस बना देती है. यह समरसता उसके सांत एवं अनंत तथा मर्त्य एवं अमृत तत्वों को प्रेम के पवित्र स्पर्श से एकमेक कर देती है. इस अवस्था को प्राप्त करके यह मनुष्य परम सत्ता की अनंतता और अमरत्व प्राप्त कर लेता है. कबीर की प्रेम मूलक भक्ति साधक में अध्यात्म के प्रति तीव्र आकर्षण जगाकर उसके मन और ह्रदय को प्रेमतत्त्व के साथ अभिन्न बना देती है. अध्यात्म तत्व के प्रति यह आकर्षण, गुरु कृपा के फलस्वरूप ह्रदय की स्वाभाविक उमंग का नतीजा होता है. किंतु जैसा कि शेख सादी ने कहा है- 'संपत्ति, प्रतिष्ठा, यश, शुभ-अशुभ का परित्याग, प्रेम मार्ग का प्रथम सोपान है.'(11) कबीर की दृष्टि में भी दंभ, अंहकार, सांसारिक सुख, धन और यौवन का गर्व, काम, क्रोध, अपवित्रता, मोह, मद, दुष्कर्म आदि का परित्याग किए बिना ह्रदय में प्रेम तत्व का प्रकाश नहीं हो सकता. कबीर को ऐसे तथाकथित भक्त बहुत बड़ी संख्या में मिले जिनके पास प्रभु की भक्ति तो नाम मात्र को थी, हाँ अंहकार भरा पड़ा था-''थोरी भगति बहुत अहंकारा, ऐसे भक्त मिलें अपारा.'' कबीर के निकट 'भगति हजारी कापड़ा' है जिसमें किसी प्रकार की कलुषता का समावेश सम्भव नहीं है- 'ता मन मल न समाई'. ऐसी स्थिति में श्वेत वस्त्र धारण करके और गले में माला डालकर भक्त होने का स्वांग रचने से कोई लाभ नहीं, मन की कालिमा तो ज्यों की त्यों बनी हुई है. भक्ति का मूलाधार प्रेम है और बिना प्रेम के अश्रु बहाने से कोई लाभ नहीं-'स्वांग सेत करणी मन काली, कहा भयो गलि माला धाली.' अथवा ' बिन ही प्रेम कहा भयौ रोयें, भीतरि मैल बाहर कहा धोयें.'
कबीर जिस प्रेम मूलक भक्ति के पक्षधर हैं, उसकी पहचान स्पष्ट कर देने में उन्हें तनिक भी संकोच नहीं है. वे कहते हैं- 'प्रेम भगति हिंडोलना सब संतन को विश्राम,' किंतु यह प्रेम सरल नहीं है. इसके लिए प्रतिष्ठा और प्राण दोनों ही दाव पर लगाना पड़ता है. कबीर के समकालीन कवि अलखदास (जन्म- 1456 ई०) ने जो फारसी में अहमदी उपनाम से कविता लिखते थे, एक शेर में इसी विचार को व्यक्त किया है-
अहमदी तादर न बाज़ी मालो-जातो-जानो-तन,
हरगिज़ अज इश्क़त न बाशद शम्मए अन्दर मशाम. (12)
अर्थात- अहमदी! यदि तू संपत्ति, प्रतिष्ठा, प्राण और संपत्ति दाव पर नहीं लगा देता तो तुझे परम सत्ता के प्रेम की सुगंध कभी प्राप्त नहीं हो सकती.
कबीर भी इस रहस्य से पूरी तरह परिचित हैं. जभी तो वे शरीर को गोंट बनाकर प्रेम का पासा पकड़ते हैं और गुरु के बताये हुए दांव के अनुरूप चौपड़ खेलते हैं- 'पासा पकड़या प्रेम का, सारी किया सरीर/ सतगुरु दांव बताइया, खेलै दास कबीर.' अहमदी ने एक अन्य शेर में भी प्रभु प्रेम के मार्ग में आगे बढ़ने के लिए पांसे पर संपत्ति, प्रतिष्ठा, और प्राण का दांव लगाने की बात की है- 'गर तू आशिक नर्दबाजी मालो, जाहो जां बेबाज़' अर्थात यदि तू प्रभु का प्रेमी है तो पांसे पर संपत्ति, प्रतिष्ठा और प्राण का दांव लगा दे. मलिक मोहम्मद जायसी के पद्मावत में रत्नसेन के इस आश्वासन पर कि वह अन्तिम साँस तक पद्मावती से कभी अलग न होगा, पद्मावती कहती है- 'ऐसे राज कुंवर नहिं मानों/ खेलु सारि पासा तौ जानौं.' (312/1) अर्थ स्पष्ट है कि चौपड़ के खेल में यदि तुम युग बाँध सको अर्थात युगनद्ध हो सको तो मैं समझूंगी कि तुम सच्चे प्रेमी हो.चौपड़ के खेल में जुग बांधकर खेलने से खिलाडी का मनोबल बना रहता है. जुग गोट कभी पिट नहीं सकती. अच्छा खिलाडी जुग बांधने पर उसे कभी अलग नहीं होने देता. इसी लिए कबीर कहते हैं कि जिसे पासा डालने का ज्ञान है वह प्रेम की चौपड़ में कभी नहीं हारता -' कहें कबीर वे कबहूँ न हारें, जानी जु ढ़ारें पासा. अथवा 'बाजीगर संसार कबीरा, जानी ढारौं पासा.
फारसी के एक सूफी कवि का शेर है- 'गर मरदे राहे इश्के जांरा हदफ़ बेसाज़./ अज़ तीर रूबगरदाँ वज़ तेग दम बेज़न.' (13) अर्थात यदि तू प्रेम मार्ग का पुरूष है तो प्राण को निशाने के समक्ष कर दे. तीर के सामने से अपना मुंह मत फेर और तलवार के सामने साँस ले. कबीर भी इसी विचारधारा के पक्षधर हैं. प्रभु के प्रेम में तन्मय पुरूष उसके मार्ग में अपने प्राण बचाने की चिंता नहीं करता. वह टुकड़े-टुकड़े हो जाय पर मैदान नहीं छोड़ता- सूरा तबही परखिये, लड़ें धणी के हेत./ पुर्जा- पुर्जा ह्वै पडै, तऊ न छोडै खेत. ' अथवा ' खेत न छाडै सूरिवां, जूझै द्वै दल माहिं./ आसा जीवन मरण की, मन मैं आनै नाहिं. श्रीपद कुरान में कहा गया है - वलातकूलू लिमैंयुक्तलु फी सबीलिल्लाहि अम्वातुन बल अहयाउन्वला किल्ला तशअरुन.(14) अर्थात 'और उन लोगों को जो प्रभु प्रेम के मार्ग में क़त्ल हो जाते हैं, उन्हें मुर्दा मत कहो. वे तो जीवित हैं, हाँ तुम्हें इसकी अनुभूति नहीं होती. इस्लाम में प्रभु के मार्ग का योद्धा विजयी होने पर 'गाजी' और मारे जाने पर 'शहीद' कहलाता है. 'शहीद' को अमरत्व प्राप्त होने के कारण उसका पद उच्चतम स्वीकार किया गया है. कबीर भी ' शहीद' के पद को जीवन की श्रेष्ठतम उपलब्धि मानते हैं. कबीर के समकालीन कवि अलखदास ने प्रेम के मार्ग में विजयी और हताहत होने वाले दोनों प्रकार के योद्धाओं को श्रेष्ठ माना है- 'जो जूझै तो अति भला, जे जीतै तो राज/ दुहूँ पंवारे हे सखी, मांदल बाजौ आज.'
सूफियों का विश्वास है कि इश्क के मार्ग में यदि आशिक मारा जाय तो माशूक स्वरूप हो जाता है. कबीर की आस्था इससे भिन्न नहीं है-' जो हारया तो हरि संवाँ, जो जीत्या तो डाव, पारब्रह्म कै सेवतां, जो सर जाई तो जाव.' भगवतगीता में भी कहा गया है- 'हतोवा प्रापस्यसि स्वर्गः जित्वा व भोक्ष्यसे महीम. (2/37). किंतु प्राचीन भारतीय इतिहास में 'शहीद' को उच्च स्थान देने की कोई परम्परा नहीं मिलती. जिस मृत्यु से हर व्यक्ति डरता है कबीर की प्रेममूलक भक्ति में वह आनंद की वस्तु है- जिस मरनैं थें जग डरै, सो मेरे आनंद/ कब मरिहूँ कब देखिहूँ, पूरन परमानन्द.' शीआ आस्था के मुसलमान नबीश्री के उन तथाकथित मित्रों को प्रिय नहीं रखते जो धर्म युद्धों में जब भी रणक्षेत्र में भेजे जाते तो न हताहत होते न ही विजयी. अपने प्राण बचाकर रणक्षेत्र से लौट आते. फिर भी बढ़-चढ़ कर बातें करने में कोई कमीं न आती. खैबर के युद्ध में जब चालीस दिनों तक यही स्थिति बनी रही तो नबीश्री ने कहा कि - 'मैं कल सेना की पताका उसके हाथ में दूँगा जो कर्रार है (जमकर युद्ध करने वाला) और गैर फ़र्रार है अर्थात भगोड़ा नहीं है. दूसरे दिन सेना की पताका शूर वीर अली को दी गयी और धर्मयुद्ध में उन्हें विजय प्राप्त हुई. यह देखकर नबीश्री के तथाकथित मित्रों के चेहरों के रंग उड़ गए. कबीर ने प्रेममार्ग के ऐसे ही भगोड़े योद्धाओं पर चोट की है- 'कायर बहुत पमावहीं, बहकि न बोलै सूर/ काम पड्या ही जानिए, किसके मुख परि नूर.'
नबीश्री की यह 'हदीस' सूफियों में अत्यधिक लोकप्रिय है कि 'निष्ठावान भक्त का प्रभु के प्रति प्रेम उस समय तक पूर्ण नहीं होता जब तक लोग यह न कह दें कि यह पागल है.' कबीर ने प्रभु-प्रेम में अपनी दीवानगी और पागलपन को जिन शब्दों में व्यक्त किया है उसका उदाहरण हिन्दी काव्य में दुर्लभ है. कबीर कहते हैं कि ठीक है सारी दुनिया सयानी है एक बस मैं ही पागल हूँ, बिगड़ गया हूँ. और लोग अपना ध्यान रखें और मेरी तरह न बिगडें- 'सब दुनी सयानी मैं बौरा, हम बिगरे, बिगरौ जिनि औरा.' किंतु कबीर यह भी बता देना चाहते हैं कि मैं स्वयं नहीं दीवाना या पागल हो गया. मुझे प्रभू के प्रेम ने पागल कर दिया है- 'मैं नहिं बौरा, राम कियो बौरा.' और सच तो यह है कि मैं विद्या पढने और वाद-विवाद के चक्करों में पड़ने से सदैव बचा रहा. मेरा यह बावलापन तो प्रभु के गुणों की चर्चा करते रहने और इस चर्चा को सुनते रहने का परिणाम है- विद्या न पढ़ बाद नहीं जानूं, हरिगुन कथत सुनत बौरानूं.' मैं तो भीतर और बाहर से प्रभु के रंग में समा गया हूँ. इस स्थिति में लोग मुझे पागल कहते हैं- 'अभि अंतरि मन रंग समाना, लोग कहैं कबीर बौराना.' किंतु कबीर के इस पागलपन का मर्म तो केवल प्रभु ही जानते हैं- 'लोग कहैं कबीर बौराना, कबीर कौ मर्म राम भल जाना.'
नबीश्री की एक हदीस सूफियों में पर्याप्त चर्चित रही है- 'अल्लाह ने मुझसे कहा कि मेरे पास मेरे मित्रों (भक्तों)' के लिए शराब है। जब वे उस शराब को पीते हैं तो मस्त हो जाते हैं. जब वे मस्त हो जाते हैं तो नृत्य करने लगते हैं. और जब नृत्य करते हैं तो प्रेम के भावावेश में मुझे प्राप्त कर लेते हैं और मुझसे उनका साक्षात्कार हो जाता है. इस अवस्था में मेरे और उनके बीच कोई अन्तर नहीं रह जाता.' इस प्रसंग में शेख फखरुद्दीन इब्राहीम हमदानी का एक शेर द्रष्टव्य है- ' बदीं सिफत कि मनम अज़ शराबे-इश्क़ ख़राब, मरा चे जाए -करामातो- नाम यां नंगस्त.' (16 ) अर्थात मैं जो इस प्रकार अलौकिक प्रेम की शराब से मस्त हूँ, मुझे चमत्कारों की या मान तथा नाम की क्या आवश्यकता है.शराब, शराब की भट्ठी और कलाल आदि के प्रतीक मेरी जानकारी में कबीर से पूर्व हिन्दी काव्य में उपलब्ध नहीं है. संस्कृत काव्य में भी इन प्रतीकों की कोई परम्परा नहीं है. सूफी कवियों में जुन्नून ने कदाचित पहली बार अपनी रचनाओं में इन प्रतीकों का प्रयोग किया. हाफिज़ के यहाँ तो ये प्रतीक उनकी कविता की पहचान बन गए. अन्य फारसी कवियों ने भी इन प्रतीकों का जमकर उपयोग किया. कबीर की रचनाओं में ये प्रतीक निश्चित रूप से फारसी कविता के प्रभाव से आए. प्रभु प्रेम की मदिरा की एक बूँद भी कलाल की भांति सहज भाव से यदि कोई संत कबीर की मदिरा के प्याले में भर दे तो उसके बदले में वह उसे अपनी सम्पूर्ण तपस्या दलाली के रूप में देने के लिए तत्पर हैं- '' है कोई संत सहज सुख उपजै, जाको जप-तप देऊँ दलाली.' 'एक बूँद भरि देइ राम रस, जिऊँ भर देई कलाली.' कबीर की दृष्टि में प्रभु प्रेम की मदिरा का पान करने वाला उसके अनंत खुमार में डूबा रहता है. वह तो बस मदमस्त घूमता रहता है जहाँ उसे अपने शरीर की भी कोई सुध नहीं रहती- ' हरि रस पीया जाणिए, जै कबहूँ न जाई खुमार./ मैमनता घूमत रहै, नाहीं तन की सार.' और ऐसा क्यों न हो. कलाल की भट्ठी को घेर कर पीने की इच्छा से न जाने कितने आकर बैठे हुए हैं. किंतु इस मदिरा का पीना आसान नहीं है. जो अपना सर सौंप दे, वही इसका पान कर सकता है-' कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई/ सिर सौंपे सोई पिवै, नहिं तो पिया न जाई.'
कबीर काव्य के अध्ययन से एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि उनकी रचनाओं में दिव्य आत्मतत्व के प्रति प्रेममूलक भावानुभूति की तीव्रता मानव को उसके स्थूल सीमाभाव से निकालकर उसके भीतर विद्यमान दैवी स्वरुप के साथ समरस बना देती है. यह समरसता उसके सांत एवं अनंत तथा मर्त्य एवं अमृत तत्वों को प्रेम के पवित्र स्पर्श से एकमेक कर देती है. इस अवस्था को प्राप्त करके यह मनुष्य परम सत्ता की अनंतता और अमरत्व प्राप्त कर लेता है. कबीर की प्रेम मूलक भक्ति साधक में अध्यात्म के प्रति तीव्र आकर्षण जगाकर उसके मन और ह्रदय को प्रेमतत्त्व के साथ अभिन्न बना देती है. अध्यात्म तत्व के प्रति यह आकर्षण, गुरु कृपा के फलस्वरूप ह्रदय की स्वाभाविक उमंग का नतीजा होता है. किंतु जैसा कि शेख सादी ने कहा है- 'संपत्ति, प्रतिष्ठा, यश, शुभ-अशुभ का परित्याग, प्रेम मार्ग का प्रथम सोपान है.'(11) कबीर की दृष्टि में भी दंभ, अंहकार, सांसारिक सुख, धन और यौवन का गर्व, काम, क्रोध, अपवित्रता, मोह, मद, दुष्कर्म आदि का परित्याग किए बिना ह्रदय में प्रेम तत्व का प्रकाश नहीं हो सकता. कबीर को ऐसे तथाकथित भक्त बहुत बड़ी संख्या में मिले जिनके पास प्रभु की भक्ति तो नाम मात्र को थी, हाँ अंहकार भरा पड़ा था-''थोरी भगति बहुत अहंकारा, ऐसे भक्त मिलें अपारा.'' कबीर के निकट 'भगति हजारी कापड़ा' है जिसमें किसी प्रकार की कलुषता का समावेश सम्भव नहीं है- 'ता मन मल न समाई'. ऐसी स्थिति में श्वेत वस्त्र धारण करके और गले में माला डालकर भक्त होने का स्वांग रचने से कोई लाभ नहीं, मन की कालिमा तो ज्यों की त्यों बनी हुई है. भक्ति का मूलाधार प्रेम है और बिना प्रेम के अश्रु बहाने से कोई लाभ नहीं-'स्वांग सेत करणी मन काली, कहा भयो गलि माला धाली.' अथवा ' बिन ही प्रेम कहा भयौ रोयें, भीतरि मैल बाहर कहा धोयें.'
कबीर जिस प्रेम मूलक भक्ति के पक्षधर हैं, उसकी पहचान स्पष्ट कर देने में उन्हें तनिक भी संकोच नहीं है. वे कहते हैं- 'प्रेम भगति हिंडोलना सब संतन को विश्राम,' किंतु यह प्रेम सरल नहीं है. इसके लिए प्रतिष्ठा और प्राण दोनों ही दाव पर लगाना पड़ता है. कबीर के समकालीन कवि अलखदास (जन्म- 1456 ई०) ने जो फारसी में अहमदी उपनाम से कविता लिखते थे, एक शेर में इसी विचार को व्यक्त किया है-
अहमदी तादर न बाज़ी मालो-जातो-जानो-तन,
हरगिज़ अज इश्क़त न बाशद शम्मए अन्दर मशाम. (12)
अर्थात- अहमदी! यदि तू संपत्ति, प्रतिष्ठा, प्राण और संपत्ति दाव पर नहीं लगा देता तो तुझे परम सत्ता के प्रेम की सुगंध कभी प्राप्त नहीं हो सकती.
कबीर भी इस रहस्य से पूरी तरह परिचित हैं. जभी तो वे शरीर को गोंट बनाकर प्रेम का पासा पकड़ते हैं और गुरु के बताये हुए दांव के अनुरूप चौपड़ खेलते हैं- 'पासा पकड़या प्रेम का, सारी किया सरीर/ सतगुरु दांव बताइया, खेलै दास कबीर.' अहमदी ने एक अन्य शेर में भी प्रभु प्रेम के मार्ग में आगे बढ़ने के लिए पांसे पर संपत्ति, प्रतिष्ठा, और प्राण का दांव लगाने की बात की है- 'गर तू आशिक नर्दबाजी मालो, जाहो जां बेबाज़' अर्थात यदि तू प्रभु का प्रेमी है तो पांसे पर संपत्ति, प्रतिष्ठा और प्राण का दांव लगा दे. मलिक मोहम्मद जायसी के पद्मावत में रत्नसेन के इस आश्वासन पर कि वह अन्तिम साँस तक पद्मावती से कभी अलग न होगा, पद्मावती कहती है- 'ऐसे राज कुंवर नहिं मानों/ खेलु सारि पासा तौ जानौं.' (312/1) अर्थ स्पष्ट है कि चौपड़ के खेल में यदि तुम युग बाँध सको अर्थात युगनद्ध हो सको तो मैं समझूंगी कि तुम सच्चे प्रेमी हो.चौपड़ के खेल में जुग बांधकर खेलने से खिलाडी का मनोबल बना रहता है. जुग गोट कभी पिट नहीं सकती. अच्छा खिलाडी जुग बांधने पर उसे कभी अलग नहीं होने देता. इसी लिए कबीर कहते हैं कि जिसे पासा डालने का ज्ञान है वह प्रेम की चौपड़ में कभी नहीं हारता -' कहें कबीर वे कबहूँ न हारें, जानी जु ढ़ारें पासा. अथवा 'बाजीगर संसार कबीरा, जानी ढारौं पासा.
फारसी के एक सूफी कवि का शेर है- 'गर मरदे राहे इश्के जांरा हदफ़ बेसाज़./ अज़ तीर रूबगरदाँ वज़ तेग दम बेज़न.' (13) अर्थात यदि तू प्रेम मार्ग का पुरूष है तो प्राण को निशाने के समक्ष कर दे. तीर के सामने से अपना मुंह मत फेर और तलवार के सामने साँस ले. कबीर भी इसी विचारधारा के पक्षधर हैं. प्रभु के प्रेम में तन्मय पुरूष उसके मार्ग में अपने प्राण बचाने की चिंता नहीं करता. वह टुकड़े-टुकड़े हो जाय पर मैदान नहीं छोड़ता- सूरा तबही परखिये, लड़ें धणी के हेत./ पुर्जा- पुर्जा ह्वै पडै, तऊ न छोडै खेत. ' अथवा ' खेत न छाडै सूरिवां, जूझै द्वै दल माहिं./ आसा जीवन मरण की, मन मैं आनै नाहिं. श्रीपद कुरान में कहा गया है - वलातकूलू लिमैंयुक्तलु फी सबीलिल्लाहि अम्वातुन बल अहयाउन्वला किल्ला तशअरुन.(14) अर्थात 'और उन लोगों को जो प्रभु प्रेम के मार्ग में क़त्ल हो जाते हैं, उन्हें मुर्दा मत कहो. वे तो जीवित हैं, हाँ तुम्हें इसकी अनुभूति नहीं होती. इस्लाम में प्रभु के मार्ग का योद्धा विजयी होने पर 'गाजी' और मारे जाने पर 'शहीद' कहलाता है. 'शहीद' को अमरत्व प्राप्त होने के कारण उसका पद उच्चतम स्वीकार किया गया है. कबीर भी ' शहीद' के पद को जीवन की श्रेष्ठतम उपलब्धि मानते हैं. कबीर के समकालीन कवि अलखदास ने प्रेम के मार्ग में विजयी और हताहत होने वाले दोनों प्रकार के योद्धाओं को श्रेष्ठ माना है- 'जो जूझै तो अति भला, जे जीतै तो राज/ दुहूँ पंवारे हे सखी, मांदल बाजौ आज.'
सूफियों का विश्वास है कि इश्क के मार्ग में यदि आशिक मारा जाय तो माशूक स्वरूप हो जाता है. कबीर की आस्था इससे भिन्न नहीं है-' जो हारया तो हरि संवाँ, जो जीत्या तो डाव, पारब्रह्म कै सेवतां, जो सर जाई तो जाव.' भगवतगीता में भी कहा गया है- 'हतोवा प्रापस्यसि स्वर्गः जित्वा व भोक्ष्यसे महीम. (2/37). किंतु प्राचीन भारतीय इतिहास में 'शहीद' को उच्च स्थान देने की कोई परम्परा नहीं मिलती. जिस मृत्यु से हर व्यक्ति डरता है कबीर की प्रेममूलक भक्ति में वह आनंद की वस्तु है- जिस मरनैं थें जग डरै, सो मेरे आनंद/ कब मरिहूँ कब देखिहूँ, पूरन परमानन्द.' शीआ आस्था के मुसलमान नबीश्री के उन तथाकथित मित्रों को प्रिय नहीं रखते जो धर्म युद्धों में जब भी रणक्षेत्र में भेजे जाते तो न हताहत होते न ही विजयी. अपने प्राण बचाकर रणक्षेत्र से लौट आते. फिर भी बढ़-चढ़ कर बातें करने में कोई कमीं न आती. खैबर के युद्ध में जब चालीस दिनों तक यही स्थिति बनी रही तो नबीश्री ने कहा कि - 'मैं कल सेना की पताका उसके हाथ में दूँगा जो कर्रार है (जमकर युद्ध करने वाला) और गैर फ़र्रार है अर्थात भगोड़ा नहीं है. दूसरे दिन सेना की पताका शूर वीर अली को दी गयी और धर्मयुद्ध में उन्हें विजय प्राप्त हुई. यह देखकर नबीश्री के तथाकथित मित्रों के चेहरों के रंग उड़ गए. कबीर ने प्रेममार्ग के ऐसे ही भगोड़े योद्धाओं पर चोट की है- 'कायर बहुत पमावहीं, बहकि न बोलै सूर/ काम पड्या ही जानिए, किसके मुख परि नूर.'
नबीश्री की यह 'हदीस' सूफियों में अत्यधिक लोकप्रिय है कि 'निष्ठावान भक्त का प्रभु के प्रति प्रेम उस समय तक पूर्ण नहीं होता जब तक लोग यह न कह दें कि यह पागल है.' कबीर ने प्रभु-प्रेम में अपनी दीवानगी और पागलपन को जिन शब्दों में व्यक्त किया है उसका उदाहरण हिन्दी काव्य में दुर्लभ है. कबीर कहते हैं कि ठीक है सारी दुनिया सयानी है एक बस मैं ही पागल हूँ, बिगड़ गया हूँ. और लोग अपना ध्यान रखें और मेरी तरह न बिगडें- 'सब दुनी सयानी मैं बौरा, हम बिगरे, बिगरौ जिनि औरा.' किंतु कबीर यह भी बता देना चाहते हैं कि मैं स्वयं नहीं दीवाना या पागल हो गया. मुझे प्रभू के प्रेम ने पागल कर दिया है- 'मैं नहिं बौरा, राम कियो बौरा.' और सच तो यह है कि मैं विद्या पढने और वाद-विवाद के चक्करों में पड़ने से सदैव बचा रहा. मेरा यह बावलापन तो प्रभु के गुणों की चर्चा करते रहने और इस चर्चा को सुनते रहने का परिणाम है- विद्या न पढ़ बाद नहीं जानूं, हरिगुन कथत सुनत बौरानूं.' मैं तो भीतर और बाहर से प्रभु के रंग में समा गया हूँ. इस स्थिति में लोग मुझे पागल कहते हैं- 'अभि अंतरि मन रंग समाना, लोग कहैं कबीर बौराना.' किंतु कबीर के इस पागलपन का मर्म तो केवल प्रभु ही जानते हैं- 'लोग कहैं कबीर बौराना, कबीर कौ मर्म राम भल जाना.'
नबीश्री की एक हदीस सूफियों में पर्याप्त चर्चित रही है- 'अल्लाह ने मुझसे कहा कि मेरे पास मेरे मित्रों (भक्तों)' के लिए शराब है। जब वे उस शराब को पीते हैं तो मस्त हो जाते हैं. जब वे मस्त हो जाते हैं तो नृत्य करने लगते हैं. और जब नृत्य करते हैं तो प्रेम के भावावेश में मुझे प्राप्त कर लेते हैं और मुझसे उनका साक्षात्कार हो जाता है. इस अवस्था में मेरे और उनके बीच कोई अन्तर नहीं रह जाता.' इस प्रसंग में शेख फखरुद्दीन इब्राहीम हमदानी का एक शेर द्रष्टव्य है- ' बदीं सिफत कि मनम अज़ शराबे-इश्क़ ख़राब, मरा चे जाए -करामातो- नाम यां नंगस्त.' (16 ) अर्थात मैं जो इस प्रकार अलौकिक प्रेम की शराब से मस्त हूँ, मुझे चमत्कारों की या मान तथा नाम की क्या आवश्यकता है.शराब, शराब की भट्ठी और कलाल आदि के प्रतीक मेरी जानकारी में कबीर से पूर्व हिन्दी काव्य में उपलब्ध नहीं है. संस्कृत काव्य में भी इन प्रतीकों की कोई परम्परा नहीं है. सूफी कवियों में जुन्नून ने कदाचित पहली बार अपनी रचनाओं में इन प्रतीकों का प्रयोग किया. हाफिज़ के यहाँ तो ये प्रतीक उनकी कविता की पहचान बन गए. अन्य फारसी कवियों ने भी इन प्रतीकों का जमकर उपयोग किया. कबीर की रचनाओं में ये प्रतीक निश्चित रूप से फारसी कविता के प्रभाव से आए. प्रभु प्रेम की मदिरा की एक बूँद भी कलाल की भांति सहज भाव से यदि कोई संत कबीर की मदिरा के प्याले में भर दे तो उसके बदले में वह उसे अपनी सम्पूर्ण तपस्या दलाली के रूप में देने के लिए तत्पर हैं- '' है कोई संत सहज सुख उपजै, जाको जप-तप देऊँ दलाली.' 'एक बूँद भरि देइ राम रस, जिऊँ भर देई कलाली.' कबीर की दृष्टि में प्रभु प्रेम की मदिरा का पान करने वाला उसके अनंत खुमार में डूबा रहता है. वह तो बस मदमस्त घूमता रहता है जहाँ उसे अपने शरीर की भी कोई सुध नहीं रहती- ' हरि रस पीया जाणिए, जै कबहूँ न जाई खुमार./ मैमनता घूमत रहै, नाहीं तन की सार.' और ऐसा क्यों न हो. कलाल की भट्ठी को घेर कर पीने की इच्छा से न जाने कितने आकर बैठे हुए हैं. किंतु इस मदिरा का पीना आसान नहीं है. जो अपना सर सौंप दे, वही इसका पान कर सकता है-' कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई/ सिर सौंपे सोई पिवै, नहिं तो पिया न जाई.'
सन्दर्भ
(1). डॉ. यश गुलाटी, सूफी कविता की पहचान, दिल्ली 1979, पृ0 68
(2). अलखबानी ( अनूदित पाठ, अनुवाद तथा सम्पादन प्रो. शैलेश ज़ैदी ), पृ0 102
(3). वही, प्रस्तावना भाग, पृ0 100
(4). हसन निजामी, फवायादुलफुवाद, 1856, पृ0 147
(5). अलखबानी, पृ0 101
(6). वही
(7). वही, पृ0 71
(8). श्रीप्रद कुरआन, अल्माइदा, आयत 15-16
(9). वही, सुरा अल-बकरा, आयत 151
(10). अलखबानी, प्रस्तावना भाग, पृ0 92
(11). वही, पृ0 56
(12). वही
(13). वही, पृ0 57
(14). श्रीप्रद कुरआन, सुरा अल-बक़रा, आयत 154
(15)। अलखबानी, अनुवाद भाग, पृ0 87
(1). डॉ. यश गुलाटी, सूफी कविता की पहचान, दिल्ली 1979, पृ0 68
(2). अलखबानी ( अनूदित पाठ, अनुवाद तथा सम्पादन प्रो. शैलेश ज़ैदी ), पृ0 102
(3). वही, प्रस्तावना भाग, पृ0 100
(4). हसन निजामी, फवायादुलफुवाद, 1856, पृ0 147
(5). अलखबानी, पृ0 101
(6). वही
(7). वही, पृ0 71
(8). श्रीप्रद कुरआन, अल्माइदा, आयत 15-16
(9). वही, सुरा अल-बकरा, आयत 151
(10). अलखबानी, प्रस्तावना भाग, पृ0 92
(11). वही, पृ0 56
(12). वही
(13). वही, पृ0 57
(14). श्रीप्रद कुरआन, सुरा अल-बक़रा, आयत 154
(15)। अलखबानी, अनुवाद भाग, पृ0 87
(16)। कुल्लियाते-शेख इराकी, तेहरान 1383, पृ0 156
************************* क्रमशः
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