अगर मैं जिस्म हूँ तो सर से पाँव तक मैं जिस्म हूँ
अगर मैं रूह हूँ तो फिर तमाम तर मैं रूह हूँ
खुदा से मेरा सिलसिला वही है जो सबा से है
अगर मैं सब्ज़ पेड़ हूँ
तो रूह और जिस्म की
वो कौन सी हदें हैं फासलों में जो बदल गयीं
ज़मीन मेरी कौन है ?
चमकता, नीलगूं, हसीन आसमान कौन है ?
जो बर्गे-गुल में धीरे-धीरे जज़्ब हो रही है धूप
ज़र्द धूप क्यों मुझे अज़ीज़ है ?
ये सोचता हूँ सब मगर मैं ताक़चों में बंद हूँ
मैं नाम कोई ढूँढता हूँ आज अपने करब का
तलाश कर रहा हूँ एक पल
क़तार-दर-क़तार शीशियों के इस हुजूम में
वो आसमान क्या हुआ ? वो सब्ज़ पेड़ क्या हुआ ?
जिगर में आग थी मगर सफूफ बन गया
जो सुर्ख था लहू कभी सपेद बन गया
मैं बोटियों में कट गया
मैं धज्जियों में नुच गया
यहाँ पे मेरी रोशनी, यहाँ पे मेरी ज़िन्दगी
सपेद,सुर्ख, ज़र्द, नीलगूं, सियाह लेबिलों में बट गई
सबा की रहगुज़र से दूर हट गई.
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गुरुवार, 21 अगस्त 2008
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