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शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

बहार /अहमद नदीम क़ासमी

इतनी खुशबू है कि दम घुटता है
अबके यूँ टूट के आई है बहार
आग जलती है कि खिलते हैं चमन
रंग शोला है तो निकहत है शरार
रविशों पर है क़यामत का निखार
जैसे तपता हो जवानी का बदन
आबला बन के टपकती है कली
कोपलें फूट के लौ देती हैं
अबके गुलशन में सबा यूँ भी चली
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मेरी आँखें वो आंसू फिर न रो पायीं / जोन एलिया

वो आंसू ही हमारे आख़िरी आंसू थे
जो हम ने गले मिलकर बहाए थे
न जाने वक़्त इन आंखों से फिर किस तौर पेश आया
मगर मेरी फरेबे-वक़्त की बहकी हुई आंखों ने
उसके बाद भी आंसू बहाए हैं
मेरे दिल ने बहोत से दुःख रचाए हैं
मगर यूँ ही
कि माहो-साल की इस रायगानी में
मेरी आँखें
गले मिलते हुए रिश्तों की फुरक़त के वो आंसू
फिर न रो पायीं !!
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गुरुवार, 21 अगस्त 2008

ड्रग स्टोर / बलराज कोमल

अगर मैं जिस्म हूँ तो सर से पाँव तक मैं जिस्म हूँ
अगर मैं रूह हूँ तो फिर तमाम तर मैं रूह हूँ
खुदा से मेरा सिलसिला वही है जो सबा से है
अगर मैं सब्ज़ पेड़ हूँ
तो रूह और जिस्म की
वो कौन सी हदें हैं फासलों में जो बदल गयीं
ज़मीन मेरी कौन है ?
चमकता, नीलगूं, हसीन आसमान कौन है ?
जो बर्गे-गुल में धीरे-धीरे जज़्ब हो रही है धूप
ज़र्द धूप क्यों मुझे अज़ीज़ है ?

ये सोचता हूँ सब मगर मैं ताक़चों में बंद हूँ
मैं नाम कोई ढूँढता हूँ आज अपने करब का
तलाश कर रहा हूँ एक पल
क़तार-दर-क़तार शीशियों के इस हुजूम में
वो आसमान क्या हुआ ? वो सब्ज़ पेड़ क्या हुआ ?
जिगर में आग थी मगर सफूफ बन गया
जो सुर्ख था लहू कभी सपेद बन गया
मैं बोटियों में कट गया
मैं धज्जियों में नुच गया
यहाँ पे मेरी रोशनी, यहाँ पे मेरी ज़िन्दगी
सपेद,सुर्ख, ज़र्द, नीलगूं, सियाह लेबिलों में बट गई
सबा की रहगुज़र से दूर हट गई.
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शुक्रवार, 15 अगस्त 2008

पसंदीदा नज़्में / शब्बीर हसन

तुम्हारे शहर का बाशिंदा हूँ
मैं भी तुम्हारे शहर का बाशिंदा हूँ
यहीं मेरी माँ ने अन्तिम हिचकियाँ ली हैं
यहीं मेरे पिता ने आंखों की कटोरियों में
मनोरम दृश्य सजाये हैं
यहीं के कब्रिस्तान में
मेरी एक बेटी दफ़्न है

मैं भी तुम्हारे शहर का बाशिंदा हूँ
यहाँ मैं ने आंसुओं के बीज बोए हैं
यहाँ मैं ने ग़मों की खेती की है
यहाँ मैं ने पीड़ा के फूल उगाए हैं
सब दुःख झेला है यहाँ
अपने लिए, तुम्हारे लिए,
नयी कोंपलों के लिए भी

मैं भी तुम्हारे शहर का बाशिंदा हूँ, लेकिन
तुम क्यों बज़िद हो
लिखने के लिए मेरे नाम
मौत का परवाना
मैं नहीं हूँ कोई मुसाफिर या
कोई अजनबी
मैं भी तुम्हारी तरह ही
इस शहर का बाशिंदा हूँ

देखो मेरी आंखों में आँखें डालकर देखो
एक बार बस एक बार.......

मार डाले गए
खिड़कियों के पट बंद कर लिए गए
लोग दरवाजे की ओट में छुप गए
हम मार डाले गए

होंठ कांपते रहे, खून की धार बहती रही
लोग देखते रह गए, हम मार डाले गए

कानून चुप रहा, मुहाफिज़ भी चुप रहे
सब निगाहें नीची किए, खड़े रह गए
हम मर डाले गए

बाद में बहुत चर्चे हुए, आंसू भी बहाए गए
फिर हर बार की तरह हम भुला दिए गए
लोग देखते रह गए, हम मर डाले गए.

बड़ी प्यारी लाग रही है
गौरैया के नन्हे-नन्हे बच्चों ने
अभी-अभी देखी है सतरंगी दुनिया
वो चीं-चीं के संगीत पर
मेज़ से फुदक कर कुर्सियों पर जाते हैं
कुर्सियों से फुदक कर अलमारी पर आते है
वो खेलना चाहते हैं आँख-मिचोली का खेल
दुनिया की तमाम चीज़ों के साथ

उन्होंने अभी नहीं देखा है कर्फ्यू का आतंक
नहीं देखी हैं धुएँ की काली लकीरें
नहीं भोग है उन्होंने अभी
पिता का अंतहीन इंतज़ार
गौरैया के बच्चों को ये दुनिया
बड़ी प्यारी लग रही है.

विस्थापित की वेदना
माँ का ज़रा भी मन नहीं लगता
बंद कमरे उसे जेल मालूम होते हैं
उमस से उसकी जान निकली जाती है
सब कुछ अजनबी सा लगता है.

उसे याद आता है झरोका
खुला आँगन
अमरूद के पेड़
पिछवाडे से आती हुई ठंडी बयार

लेकिन वहाँ अब कुछ भी नहीं है
न खुला आँगन, न खुला दिल
न अमरूद के पेड़
न मुहब्बत की छाँव

माँ बावली हो जाती है
कमरे से निकल कर गली में आती है
गंदे नाले पर पड़ी
चारपाई पर बैठकर
रोने लगती है
समय को कोसने लगती है.
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पसंदीदा नज़्में / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

1. यज्ञ और हवन
यज्ञ की आग पहले सुलगती थी
रौशन हवन कुण्ड होते थे
सारी फ़िज़ा
ऊदो-अम्बर की खुशबू के
हौज़े-मुक़द्दस में अशनान करती थी
पाकीज़गी का तसौवुर था हर सिम्त माहौल में.

यज्ञ होते हैं अब भी, मगर
यज्ञ की आग में
अब झुलसती हैं जिंदा जवां लडकियां
खिलखिलाती हुई बस्तियां
नन्हे मासूम बच्चों की किलकारियां
और अब जो हवन कुण्ड रौशन किए जाते हैं
उनमें जलते हैं मीनारो-गुम्बद, इबादत-कदे
बाइबिल, रहलो-कुरआं, सलीबें, सदाए-अजाँ
2. राख (1)
हर तरफ़ राख ही राख थी
राख का ढेर था
और कुछ भी न था.
एक सन्नाटा इस राख के ढेर से
दिल के वीरान-खानों के जलते हुए आबलों की तरह
दर्द-आलूद, पुरसोज़, बे-लफ्ज़ आवाज़ में
अपने ज़ख्मों के बोसीदा पैराहनों के
सुलगते लहू की कहानी सुनाने में मसरूफ था
राख को मैं ने छूने की कोशिश जो की
उंगलियाँ जल गयीं
इक पिघलता हुआ गर्म सय्याल
मेरी झुलसती हुई उँगलियों से गुज़रता हुआ
मेरी रग-रग में पेवस्त होने लगा.
मैं ने देखा मेरे जिस्म में कितनी ही बस्तियां
आग के आसमां छूते शोलों की ज़द में हैं
फरयाद करती हुई
अल-अमां, अल-मदद,
अल-हफीज, अल-मदद, अल-अमां
और मैं कितना मजबूर हूँ.
3. राख (2)
सर पे अपने कफ़न बाँध कर
जब बरहना हवाओं ने जलती हुई राख को
इस ज़मीं से कुशादा हथेली पे अपनी उठा कर
जहां भर की जिंदा फिजाओं की दहलीज़ पर रख दिया
अहले-दिल चीख उठे
जो मुहाफिज़ थे इंसानी क़दरों के
दुनिया के हर गोशे से
हो के सर-ता-क़दम मुज़महिल, चीख उठे
खूने-नाहक में डूबा नज़र आया हिन्दोस्तां.
4. राख (3)
सियाही में तब्दील होने से पहले
सुलगती हुई राख के एक अम्बार ने
मुझ को आवाज़ दी.
ऐ मुसाफिर ! कभी तूने देखा है
किस तर्ह आबादो-खुशहाल हँसते घरों को
दरिंदा-सिफत मज़हबी सर फिरे
नफरतों की धधकती हुई आग से
एक पल में बदल देते हैं राख में ?
देख उस गोशे में
राख की मोटी तह में दबी
कितनी मजबूरो-माज़ूर, उरियां-बदन
लुट चुकी, हाँपती-कांपती
दर्द-आमेज़ दोशीज़ा चीखें मिलेंगी तुझे
और उस से ज़रा फासले पर मिलेगा
बहोत दूर तक राख का इक समंदर
जहाँ ज़ह्र-आलूद मज़हब-ज़दा
ज़ाफरानी हवाओं ने
कितनी ही माँओं की ममता भरी कोख को चीर कर
गैर-जाईदा बच्चों को बाहर निकाला
तिलक और तिरशूल का जितना तेजाब था
उनपे छिड़का कि गल जाएँ नाज़ुक बदन
और फिर नेकरों में भरी आग का तांडव
देर तक खुल के होता रहा
ऐ मुसाफिर ! तेरे घर में कुछ
बाल-बच्चे तो होंगे
कुँवारी जवां लड़कियां भी तेरे घर में होंगी
उन्हें जाफरानी हवाओं के
गंदे इरादों से महफूज़ रखना
हमारी तरह वो बदलने न पायें कभी राख में
5। राख (4)
इस से पहले कि आज़ादी का जश्न मिल कर मनाएं !
मुझे ये बताओ
कहीं कुछ तुम्हें भी सुलगता सा महसूस होता है
या वहम है ये मेरा
जिसकी कोई हकीकत नहीं है.
चलो मान लेता हूँ ये वहम होगा.
मगर वो जो इक शहर का शहर
शोलों की ज़द में है
जिसको मैं अन्दर कहीं जिस्म की वादियों में
मुसलसल झुलसता हुआ देखता हूँ
उसे वहम किस तर्ह समझूं
वहाँ सिर्फ़ बदबू है
जलते हुए, राख होते हुए
बेखता, बे-ज़बां
हसरतों के जवां-साल जिस्मों की बदबू
ये एहसास क्यों सिर्फ़ मुझको है
तुमको नहीं है
मैं हैरत जादा हूँ !
मगर जश्ने आज़ादी तो हम मनाएंगे मिल कर
हवाओं में लहरायेंगे
मुल्क की साल्मीयत का परचम
इन्हीं जिस्मों की राख के ढेर पर बैठ कर.
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पसंदीदा नज़्में / गुलज़ार

18 मर्तबा फ़िल्म फेअर अवार्ड जीतने वाले गुलज़ार एक अच्छे शायर, एक कामयाब स्क्रिप्ट राइटर,एक बेमिसाल डाइरेक्टर और एक चुम्बकीय व्यक्तित्व के मालिक हैं. उनकी गज़लें, नज्में, गीत उनके कुछ और नज्में, पुखराज, रात पश्मीने की और त्रिबेनी में संकलित हैं. उनकी कहानियो के संग्रह रावी पार, खराशें और धुंआ अपनी एक अलग कशिश रखते हैं. आनंद, मौसम, लिबास, आंधी, खुशबू इत्यादि की स्क्रिप्ट गुलज़ार की खुशबु से शराबोर है. समपूरन सिंह कालरा यानी गुलज़ार 1936 में वर्त्तमान पाकिस्तान के झेलम जिले में जन्मे ज़रूर, लेकिन हिन्दुस्तानी मौसमों की आबो-हवा उन्हें इस तरह रास आई कि उर्दू तहजीब की रेशमी चादर लपेट कर फकीराना शान और रिन्दाना तेवर से अपनी रचनाओं से कला और साहित्य का खजाना भरते रहे. पेश हैं यहाँ गुलज़ार की चन्द नज्में.
1. उर्दू
ये कैसा इश्क है उर्दू ज़बां का
मज़ा घुलता है लफ्जों का ज़बां पर
कि जैसे पान में महंगा क़माम घुलता है
नशा आता है उर्दू बोलने में.
गिलोरी की तरह हैं मुंह लगी सब इस्तिलाहें
लुत्फ़ देती हैं.

हलक़ छूती है उर्दू तो
हलक़ से जैसे मय का घूँट उतरता है !
बड़ी एरिस्टोक्रेसी है ज़बां में.
फकीरी में नवाबी का मज़ा देती है उर्दू.

अगरचे मानी कम होते हैं और अल्फाज़ की
इफरात होती है
मगर फिर भी
बलंद आवाज़ पढिये तो
बहोत ही मोतबर लगती हैं बातें
कहीं कुछ दूर से कानों में पड़ती है अगर उर्दू
तो लगता है
कि दिन जाडों के हैं, खिड़की खुली है
धूप अन्दर आ रही है.

अजब है ये ज़बां उर्दू
कभी यूँ ही सफर करते
अगर कोई मुसाफिर शेर पढ़ दे मीरो-गालिब का
वो चाहे अजनबी हो
यही लगता है वो मेरे वतन का है
बड़े शाइस्ता लह्जे में किसी से उर्दू सुनकर
क्या नहीं लगता -
कि इक तहजीब की आवाज़ है उर्दू.
2.शफक
रोज़ साहिल पे खड़े हो के यही देखा है
शाम का पिघला हुआ सुर्ख सुनहरी रोगन
रोज़ मटियाले से पानी में ये घुल जाता है.
रोज़ साहिल पे खड़े हो के यही सोचा है
मैं जो पिघली हुई रंगीन शफक का रोगन
पोंछ लूँ हाथों पे
और चुपके से इक बार कभी
तेरे गुलनार से रुखसारों पे छप से मल दूँ.
शाम का पिघला हुआ सुर्ख सुनहरी रोगन.
3. दस्तक
सुबह सुबह इक ख्वाब की दस्तक पर दरवाज़ा खोला,
देखा
सरहद के उस पार से कुछ मेहमान आए हैं
आंखों से मानूस थे सारे

चेहरे सारे सुने-सुनाये
पाँव धोया हाथ धुलाये
आँगन में आसन लगवाये
और तंदूर पे मक्की के कुछ
मोटे-मोटे रोट पकाए
पोटली में मेहमान मरे
पिछले सालों की फसलों का गुड लाये थे
आँख खुली तो देखा घर में कोई नहीं था
हाथ लगाकर देखा तो तंदूर अभी तक
बुझा नहीं था.
और हाथों पर मीठे गुड का जायका अबतक
चिपक रहा था
ख्वाब था शायद
ख्वाब ही होगा
सरहद पर कल रात सुना है चली थी गोली
सरहद पर कल रात सुना है
कुछ ख़्वाबों का खून हुआ है.
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सोमवार, 11 अगस्त 2008

किसी ने पुकारा / ऐन ताबिश

किसी ने पुकारा
घनेरे सियह बादलों से
अँधेरी सिसकती हुई रात के आंचलों से
ख़मोशी में डूबे हुए
सर्द एहसास के जंगलों से

एक मज़बूत पुख्ता मकां के सुतूनों में
लर्जिश हुई
देखते देखते रक्स करती ज़मीं थम गई
आसमां से उदासी की बारिश हुई
एक लम्हे को ख्वाहिश हुई
छोड़कर सारा ज़ोमे-सफ़र
बीच रस्ते में रुक कर, ज़रा ठह्र कर
जानी-पहचानी आवाज़ के लम्स को
अपने अन्दर कहीं
फिर से ज़िन्दा करूँ
एक भूला-भुलाया हुआ क़िस्सए जाँफ़िज़ा
फिर से ताज़ा करूँ
***********************

रविवार, 10 अगस्त 2008

निदा फाज़ली की दो नज़्में

1. फ़रिश्ते निकले हैं रौशनी के
हुआ सवेरा
ज़मीन पर फिर अदब से आकाश
अपने सर को झुका रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं.

नदी में स्नान कर के सूरज
सुनहरी मलमल की पगड़ी बांधे
सड़क किनारे
खड़ा हुआ मुस्कुरा रहा है.
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं

हवाएं सरसब्ज़ डालियों में
दुआओं के गीत गा रही हैं
महकते फूलों की लोरियां
सोते रास्तों को जगा रही हैं
घनेरा पीपल, गली के कोने से
हाथ अपना हिला रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं

फ़रिश्ते निकले हैं रोशनी के
हर एक रस्ता चमक रहा है
ये वक़्त वो है, ज़मीं का हर ज़र्रा
मां के दिल सा धड़क रहा है
पुरानी इक छत पे वक़्त बैठा
कबूतरों को उड़ा रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं

2. जो हुआ सो हुआ
उठके कपडे बदल
घर से बाहर निकल
जो हुआ सो हुआ.

जब तलक साँस है
भूक है प्यास है
ये ही इतिहास है.
रख के काँधे पे हल
खेत की ओर चल
जो हुआ सो हुआ

खून से तर-ब-तर
करके हर रहगुज़र
थक गए जानवर
लड़कियों की तरह
फिर से चूल्हे में जल
जो हुआ सो हुआ.

जो मरा क्यों मरा
जो जला क्यों जला
जो लुटा क्यों लुटा
मुद्दतों से हैं गुम
इन सवालों के हल.
जो हुआ सो हुआ

मंदिरों में भजन
मस्जिदों में अजाँ
आदमी है कहाँ
आदमी के लिए
एक ताज़ा ग़ज़ल
जो हुआ सो हुआ
******************

सहारे / वामिक़ जौनपुरी

पहली मई, यौमे-मज़दूर के तअल्लुक़ से
बढे चलो बढे चलो
यही निदाए-वक़्त है
ये कायनात, ये ज़मीं
निज़ामे-शम्स का नगीं
ये कहकशां सा रास्ता,
इसी पे गामज़न रहो
ये तीरगी तो आरजी है, मत डरो
यहाँ से दूर
कुछ परे पे सुब्ह का मुक़ाम है
सलाए-बज्मे-आम है
क़दम क़दम पे इस कदर रुकावटें हैं अल-अमां
मगर अजीब शान से ये कारवां रवां-दवां
चला ही जाएगा परे
उफक से भी परे कहीं
तुम्हारे नक्शे-पा में जिंदगी का रंग
हंस रहा है
ताके पीछे आने वालों को
पता ये चल सके
कि इस तरफ़ से एक कारवां गुज़र चुका है कल
और अपने जिस्मो-जान हमको वक्फ कर चुका है कल
*******************************

बुधवार, 6 अगस्त 2008

रक्स / नून मीम राशिद

[ फैज़ अहमद फैज़ और मीरा जी के समकालीन उर्दू कवियों में नून मीम राशिद (1910-1975) आधुनिक उर्दू कविता के जनक माने जाते हैं. गुजरांवाला के एक छोटे से गाँव कोट भग्गा अकाल गढ़ में जन्मे नून मीम राशिद अर्थशास्त्र के एम.ए. थे. यूनाईटेड नेशन में सेवारत रहकर अनेक देशों में घूमते रहे.अंत में लन्दन में निधन हुआ. उनके विरुद्ध हमेशा साजिश होती रही कि उनकी कविता को अधिक लोकप्रियता न मिल सके.उनका प्रथम आजाद नज्मों का संकलन मावरा 1940 में प्रकाशित हुआ.]
ऐ मेरी हम-रक्स मुझको थाम ले
जिंदगी से भाग कर आया हूँ मैं
डर से लरजाँ हूँ कहीं ऐसा न हो
रक्स-गह के चोर दरवाज़े से आकर जिंदगी
ढूंढ ले मुझको निशाँ पा ले मेरा
और जुरमे-ऐश करते देख ले

ऐ मेरी हम-रक्स मुझको थाम ले
रक्स की ये गरदिशें
एक मुबहम आसिया के दौर हैं
कैसी सरगर्मी से गम को रौंदता जाता हूँ मैं
जी में कहता हूँ कि हाँ
रक्स-गह में जिंदगी के झांकने से पेश्तर
कुल्फतों का संग्रेज़ा एक भी रहने न पाय

ऐ मेरी हम-रक्स मुझको थाम ले
जिंदगी मेरे लिए
एक खुनी भेडिये से कम नाहीं
ऐ हसीनो-अजनबी औरत उसी के डर से मैं
हो रहा हूँ लम्हा-लम्हा और भी तेरे क़रीब
जानता हूँ तू मेरी जाँ भी नहीं
तुझसे मिलने का फिर इम्काँ भी नहीं
तू ही मेरी आरजूओं की मगर तमसील है
जो रही मुझसे गुरेज़ाँ आज तक

ऐ मेरे हम-रक्स मुझको थाम ले
अहदे पारीना का मैं इन्सां नहीं
बंदगी से इस दरो-दीवार की
हो चुकी है हैं ख्वाहिशें बेसोजो-रंगों-नातवाँ
जिस्म से तेरे लिपट सकता तो हूँ
जिंदगी पर मैं झपट सकता तो हूँ
इस लिए अब थाम ले
ऐ हसीनो-अजनबी औरत मुझे अब थाम ले
*********************

तुमने तहरीक मुझे दी थी कि जाओ देखो / मीरा जी

[मीरा जी (1912-1949) उन गिने-चुने उर्दू कवियों में हैं जो अपनी छोटी सी जिंदगी में बड़ी सी पहचान छोड़ गए.गुजरानवाला में जन्मे मुहम्मद सनाउल्लाह सनी दर को मीरा सेन के इश्क ने मीरा जी बना दिया.उनके पिता इंडियन रेलवेज़ में इंजिनियर थे. लेकिन मीरा जी अपना घर छोड़कर बंजारों की जिंदगी गुजारना अपना मुक़द्दर बना चुके थे. स्कूल से नाम जरूर कटवा लिया लेकिन गहन अध्ययन के स्कूल की स्थायी सदस्यता कभी नहीं छोड़ी. अदबी दुनिया लाहौर, साकी दिल्ली और ख़याल बम्बई जैसी उच्च साहित्यिक पत्रिकाओं से जुड़े रहे.कुछ वर्षों आल इंडिया रेडियो दिल्ली में भी काम किया. संस्कृत और फ्रेंच साहित्य से प्रभावित थे. विशेष रूप से बादलेयर से. उर्दू कविता में प्रतीकात्मकता को जन्म देने का श्रेय मीरा जी को है. संस्कृत कवि दामोदर गुप्त और फ़ारसी कवि उमर खैयाम का अनुवाद करके उन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा का लोहा मनवा लिया. किंतु जिंदगी को शराब में इस गहराई तक डुबो चुके थे कि तैर कर बाहर निकलने का कोई रास्ता बचा नहीं रह गया.]
तुमने तहरीक मुझे दी थी कि जाओ देखो
चाँद तारों से परे और भी दुनियाएं हैं
तुमने ही मुझसे कहा था कि ख़बर ले आओ
मेरे दिल में वहीं जाने की तमन्नाएं हैं

और मैं चल दिया, कुछ गौर किया कब इसपर
कितना महदूद है इंसान की कूवत का तिलिस्म
बस यही जी को ख़याल आया तुम्हें खुश कर दूँ
ये न सोचा कि यूँ मिट जायेगा राहत का तिलिस्म

और अब हम्दमियो-इशरते-रफ़्ता कैसी
आह अब दूरी है, दूरी है, फ़क़त दूरी है
तुम कहीं और कहीं मैं नहीं पहले हालात
लौट के आभी नहीं सकता ये मजबूरी है

मेरी किस्मत की जुदाई तुम्हें मंज़ूर हुई
मेरी किस्मत को पसंद आयीं न मेरी बातें
अब नहीं जलवागहे-खिल्वते शब अफ़साने
अब तो बस तीरओ तारीक हैं अपनी रातें
*****************************

मंगलवार, 5 अगस्त 2008

लेकिन मैं यहाँ फिर आऊंगा / अली सरदार जाफ़री

फिर एक दिन ऐसा आएगा
आंखों के दिये बुझ जायेंगे
हाथों के कँवल कुम्हलाएँगे
और बर्गे-ज़बां से नुत्क़ो-सदा
की हर तितली उड़ जायेगी

इक काले समंदर की तह में
कलियों की तरह से खिलती हुई
फूलों की तरह से हंसती हुई
सारी शक्लें खो जायेंगी
खूं की गर्दिश दिल की धड़कन
सब रागिनियाँ सो जायेंगी
और नीली फ़िज़ा की मख़मल पर
हंसती हुई हीरे की ये कनी
ये मरी जन्नत मेरी ज़मीं
इसकी सुब्हें इसकी शामें
बे जाने हुए बे समझे हुए
इक मुश्ते-गुबारे-इन्सां पर
शबनम की तरह रो जायेंगी

हर चीज़ भुला दी जायेगी
यादों के हसीं बुतखाने से
हर चीज़ उठा दी जायेगी
फिर कोई नहीं ये पूछेगा
सरदार कहाँ है महफ़िल में ?

लेकिन मैं यहाँ फिर आऊंगा
बच्चों के दहन से बोलूंगा
चिडियों की जुबां में गाऊँगा
जब बीज हँसेंगे, धरती से
और कोपलें अपनी ऊँगली से
मिट्टी की तहों को छेड़ेंगी
मैं पत्ती-पत्ती कली-कली
अपनी आँखें फिर खोलूंगा
सरसब्ज़ हथेली पर लेकर
शबनम के क़तरे तोलूँगा
मैं रंगे-हिना आहंगे-ग़ज़ल
अंदाजे-सुखन बन जाऊँगा.
रुख्सारे-उरूसे-नौ की तरह
हर आँचल से छन जाऊँगा

जाड़े की हवाएं दामन में
जब फ़स्ले-खिजां को लायेंगी
रह्वों के जवाँ क़दमों के तले
सूखे हुए पत्तों में मेरे
हंसने की सदाएं आएँगी
धरती की सुनहली सब नदियाँ
आकाश की नीली सब झीलें
हस्ती से मेरी भर जायेंगी
और सारा ज़माना देखेगा
हर किस्सा मेरा अफसाना है
हर आशिक है सरदार यहाँ
हर माशूका सुल्ताना है

मैं एक गुज़रता लम्हा हूँ
अय्याम के अफसूँ खाने में
मैं एक तड़पता क़तरा हूँ
मसरूफ़े-सफ़र हो जाऊँगा
माजी की सुराही के दिल से
मुस्तकबिल के पैमाने में
मैं सोता हूँ और जागता हूँ
सदियों का पुराना खेल हूँ मैं
मैं मर के अमर हो जाऊँगा
************

बुधवार, 30 जुलाई 2008

ख्वाब की तर्ह से है याद कि तुम आये थे / जगन्नाथ आज़ाद

ख्वाब की तर्ह से है याद कि तुम आये थे

जिस तरह दामने-मशरिक़ में सेहर होती है
ज़र्रे-ज़र्रे को तजल्ली की ख़बर होती है
और जब नूर का सैलाब गुज़र जाता है
रात भर एक अंधेरे में बसर होती है
कुछ इसी तर्ह से है याद कि तुम आये थे

जैसे गुलशन में दबे पाँव बहार आती है
पत्ती-पत्ती के लिए ले के निखार आती है
और फिर वक़्त वो आता है कि हर मौजे-सबा
अपने दामन में लिए गर्दो-गुबार आती है
कुछ इसी तर्ह से है याद कि तुम आये थे

जिस तरह महवे-सफर हो कोई वीराने में
और रस्ते में कहीं कोई खियाबाँ आ जाय
चन्द लम्हों में खियाबाँ के गुज़र जाने पर
सामने फिर वही दुनियाए-बियाबाँ आ जाय
कुछ इसी तर्ह से है याद कि तुम आये थे
**********************

वक़्त के हाथ बहोत लंबे हैं / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

चाँद सितारों की मईयत को
सूरज के ताबूत में रख कर
शाम के सूने कब्रिस्तान में गाड़ आते हैं
वक़्त के हाथ बहोत लंबे हैं
*********************

तुम्हें भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूं / जावेद अख़तर

मैं भूल जाऊं तुम्हें अब यही मुनासिब है
मगर भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ
कि तुम तो फिर भी हकीकत हो, कोई ख्वाब नहीं
यहाँ तो दिल का ये आलम है क्या कहूँ कमबख्त
भुला सका न ये वो सिलसिला जो था ही नहीं
वो इक ख़याल जो आवाज़ तक गया ही नही
वो एक बात जो मैं कह नहीं सका तुम से
वो एक रब्त जो हम में कभी रहा ही नहीं
मुझे है याद वो सब जो कभी हुआ ही नहीं
अगर ये हाल है दिल का तो कोई समझाए
तुम्हें भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूं
कि तुम तो फिर भी हकीकत हो कोई ख्वाब नहीं
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शआरे-वफ़ा / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

सरे-रहगुज़र मुझको कीलों से जड़ दो
पिन्हाकर मुझे
पाँव में आहनी बेड़ियाँ क़ैद कर लो
पिलाओ मुझे
अपने सफ्फाको-बे-रहम हाथों से
ज़ह्रे-हलाहल
अज़ीयत मुझे चाहे जितनी भी पहोंचाओ
थक-हार कर बैठ जाओगे इक दिन
कि मैं आशनाए -शआरे-वफ़ा हूँ।
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तू मुझे इतने प्यार से मत देख / अली सरदार जाफ़री

तू मुझे इतने प्यार से मत देख
तेरी पलकों के नर्म साए में
धूप भी चांदनी सी लगती है
और मुझे कितनी दूर जाना है
रेत है गर्म, पाँव के छाले
यूँ दमकते हैं जैसे अंगारे
प्यार की ये नज़र रहे न रहे
कौन दश्ते-वफ़ा में जाता है
तेरे दिल को ख़बर रहे न रहे
तू मुझे इतने प्यार से मत देख
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फ़राग़त / बलराज कोमल

यूँ तेरी निगाहों से गिला कुछ भी नहीं था
इस दिल ने तो बेकार यूँ ही बैठे-बिठाए
वीरानिए-लम्हात को बहलाने की ख़ातिर
अफ़साने गढे, बातें बनायी थीं हज़ारों
ये इश्क का अफसाना जो फिर छेड़ा है तू ने
बेकार है अब वक़्त कहाँ उसको सुनूँ मैं
जब तुमको फ़रागत न थी, अब मुझ को नहीं है।
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आवारा सज्दे / कैफी आज़मी

इक यही सोज़े-निहां कुल मेरा सरमाया है
दोस्तों मैं किसे ये सोजे-निहां नज़्र करूँ
कोई क़ातिल सरे-मक़तल नज़र आता ही नहीं
किसको दिल नज़्र करूँ और किसे जां नज़्र करूँ

तुम भी महबूब मेरे तुम भी हो दिलदार मेरे
आशना मुझसे मगर तुम भी नहीं, तुम भी नहीं
ख़त्म है तुम पे मसीहा नफसी चारागरी
महरमे-दर्दे-जिगर तुम भी नहीं तुम भी नहीं

अपनी लाश आप उठाना कोई आसन नहीं
दस्तो-बाजू मेरे नाकारा हुए जाते हैं
जिन से हर दौर में चमकी है तुम्हारी देहलीज़
आज सज्दे वही आवारा हुए जाते हैं

दूर मंजिल थी मगर ऐसी भी कुछ दूर न थी
लेके फिरती रही रस्ते ही में वहशत मुझ को
एक ज़ख्म ऐसा न खाया कि बहार आ जाती
दार तक एके गया शौके-शहादत मुझ को

राह में टूट गया पाँव तो मालूम हुआ
जुज़ मेरे और मेरा राहनुमा कोई नहीं
एक के बाद खुदा एक चला आता था
कह दिया अक्ल ने तंग आके खुदा कोई नहीं
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सोमवार, 28 जुलाई 2008

धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं ?/ मिश्कात आबिदी

बताये कोई लोग क्यों सो रहे हैं
ये बेचारगी किस लिए ढो रहे हैं
पड़ोसी को बस कोस कर रो रहे हैं
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं

हुआ क्या जो इस दर्जा मजबूर हैं हम
क़दम क्यों उठाने से माजूर हैं हम
हकीकत से क्यों इस कदर दूर हैं हम
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं

कहाँ से हैं आते ये जानों के दुश्मन
अमन शांती के तरानों के दुश्मन
हैं क्यों ये हमारे ठिकानों के दुश्मन
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं

हुकूमत ने होंटों को सी क्यों लिया है
तकल्लुफ का आख़िर ये क्यों सिलसिला है
सही बात कहने में खतरा ही क्या है
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं ?

तबाही का ये दौर कब तक चलेगा
इसी तर्ह क्या खून बहता रहेगा
या कोई कभी खुल के भी कुछ कहेगा
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं ?

ज़रा जा के दहशत-पनाहों से पूछो
तशद्दुद-पसंदी के शाहों से पूछो
गला थाम कर कम-निगाहों से पूछो
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं ?

ये उजड़े हुए घर ये जिस्मों के टुकड़े
कभी थे जो माँओं की आंखों के टुकड़े
हुए बेखता, बेगुनाहों के टुकड़े
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं ?

हैं कातिल मेरे मुल्क के राहबर भी
जो करते नहीं कुछ, ये सब देख कर भी
कभी दहशतें पहोंचेंगी उनके घर भी
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं ?
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