बुधवार, 30 जुलाई 2008

तुम्हें भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूं / जावेद अख़तर

मैं भूल जाऊं तुम्हें अब यही मुनासिब है
मगर भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ
कि तुम तो फिर भी हकीकत हो, कोई ख्वाब नहीं
यहाँ तो दिल का ये आलम है क्या कहूँ कमबख्त
भुला सका न ये वो सिलसिला जो था ही नहीं
वो इक ख़याल जो आवाज़ तक गया ही नही
वो एक बात जो मैं कह नहीं सका तुम से
वो एक रब्त जो हम में कभी रहा ही नहीं
मुझे है याद वो सब जो कभी हुआ ही नहीं
अगर ये हाल है दिल का तो कोई समझाए
तुम्हें भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूं
कि तुम तो फिर भी हकीकत हो कोई ख्वाब नहीं
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1 टिप्पणी:

कंचन सिंह चौहान ने कहा…

waaah kya baat hai....ham se ba.ntane ka shukriya