बुधवार, 23 जुलाई 2008

कबीर के अध्ययन की समालोचनात्मक पूर्व-पीठिका / प्रो. शैलेश ज़ैदी


कबीर का काव्य यद्यपि विवाद का विषय नहीं है, फिर भी हिन्दी में कबीर के अध्ययन की स्थिति बहुत स्वस्थ नहीं कही जा सकती. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कबीर विषयक अपनी अवधारणाएँ स्थापित करते समय एक सीमा तक संतुलन बनाए रखने का प्रयास किया. उनका विचार था कि " जो ब्रह्म हिन्दुओं की विचार-पद्धति में ज्ञान मार्ग का एक निरूपण था, उसी को कबीर ने सूफियों के ढर्रे पर उपासना का ही विषय नहीं, प्रेम का विषय भी बनाया और उसकी प्राप्ति के लिए हठयोगियों की साधना का समर्थन किया. इस प्रकार उन्होंने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ, सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया." (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ0 77 ).
शुक्ल जी के ज्ञान की सीमाएं भारतीय ब्रह्मवाद तथा हठयोग साधना तक थीं. सूफियों के एकत्ववादी चिंतन (वह्दतुल्वुजूद का दर्शन) से वे पूर्णतः अनभिज्ञ थे. फिर वैष्णवों के जिस अहिंसावाद की उन्होंने यहाँ चर्चा की है, तुलसी एवं सूर जैसे आदर्श वैष्णव कवियों का मूयांकन करते समय वे इसका उल्लेख तक नहीं करते. वैष्णव इतिहास तो नरसंहार से भरा पड़ा है. राक्षसों का वध, राम-रावण युद्ध, कौरव-पांडव संग्राम, सभी स्थलों पर नरसंहार की लीला है. और यह सब कुछ असत्य को कुचलने और सत्य को स्थापित करने के लिए किया गया है. वैष्णव इतिहास सत्य के लिए प्राण देना और मर-मिटाना नहीं सिखाता, प्राण लेना और शत्रु का नामो-निशान तक मिटा देना सिखाता है. परशुराम जी क्षत्रियों का संहार करते हैं. यहाँ सत्य और असत्य का क्या आधार है, स्पष्ट नहीं होता. वैष्णवों के सभी इष्टदेव सशस्त्र दिखाए जाते हैं, जिन्हें देखकर अहिंसा की कोई कल्पना भी नहीं की जा सकती. देवियाँ भी कहीं रक्त पीती हैं, कहीं रक्त का स्नान करती हैं, कहीं रक्त का टीका लगाती हैं और गले में मुंडमाल पहनती हैं. आचार्य शुक्ल को, सम्भव है यहाँ भी अहिंसावाद की गंध मिली हो. रह गई बात प्रपत्तिवाद की. सूफी प्रभाव के पूर्व प्रपत्ति का प्रवेश व्यावहारिक स्तर पर वैष्णव चिंतन में नहीं मिलता. सूफी चिंतन का तो आधार ही प्रपत्ति एवं निग्रह है.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल की दृष्टि में कबीर में जो कुछ 'बे-ढब' है उसमें सूफियों का प्रभाव है. शुक्ल जी की लीक पीटने वाले हिन्दी आलोचक सूरदास तुलसीदास आदि को रहस्यवादी कहना अनुपयुक्त और असंगत मानते हैं. शुक्ल जी की दृष्टि में "रहस्यवादी चिंतन पैगम्बरी मत मानने वाले देशों में विकसित हुआ. भारत में ऐसी बेढब जरूरत ही नहीं पडी." (चिंतामणि भाग 2, पृ0 81) कबीर और जायसी में रहस्यवाद को मान्यता देने और सूर तथा तुलसी के काव्य को भक्ति की एक विशिष्ट परिभाषा के भीतर मूल्यांकित करने की यह परम्परा किसी तर्क अथवा प्रमाण को स्वीकार करने के पक्ष में नहीं है. कदाचित इसीलिए "कबीर का भक्ति काव्य" अथवा "सूफी भक्ति काव्य" जैसे शीर्षक वाली एक भी पुस्तक हिन्दी में उपलब्ध नहीं है. हो भी नहीं सकती. कारण यह है कि वैष्णव चिंतन एक ही बात को पीढी-दर-पीढी बार-बार दुहराकर केवल यह स्थापित करना चाहता है कि 'प्रस्थानत्रयी' से इतर जो कुछ भी है, उसे भक्ति की परिधि में नहीं रखा जा सकता.
डॉ. रामकुमार वर्मा रहस्यवाद की जड़ें 'हिन्दुओं के अद्वैतवाद" में देखने के पक्षधर हैं. उनके विचार से "कबीर का रहस्यवाद हिन्दुओं के अद्वैतवाद और मुसलमानों के सूफी मत पर आश्रित है." (कबीर का रहस्यवाद, पृ0 25). प्रतीत होता है कि डॉ. रामकुमार वर्मा को अद्वैतवाद से मिलते-जुलते दर्शन की लम्बी स्वस्थ परम्परा सूफियों के यहाँ एक सिरे से दिखायी ही नहीं दी. थोड़े से उलट-फेर के साथ यह आचार्य शुक्ल के विचारों की पुनरावृत्ति मात्र है. जायसी ग्रंथावली में आचार्य शुक्ल ने स्पष्ट लिखा है - "निर्गुण शाखा के संत कबीर, दादू आदि संतों की परम्परा में ज्ञान का जो थोड़ा बहुत अनुभव है, वह भारतीय वेदान्त का है, पर प्रेमतत्व बिल्कुल सूफियों का है."(पृ0 162).डॉ. रामकुमार वर्मा आचार्य शुक्ल की इसी अवधारण को इन शब्दों में व्यक्त करते हैं -"उन्होंने (कबीर ने) अद्वैतवाद से माया और चिंतन तथा सूफी मत से प्रेम लेकर अपने रहस्यवाद की सृष्टि की." (कबीर का रहस्यवाद, पृ0 25). यहाँ मध्ययुगीन इतिहास विशेषज्ञ प्रो. इरफान हबीब की यह अवधारणा भी विचारणीय है कि "कबीर पर शंकर के वेदान्त की बात हम स्वीकार नहीं करते.क्योंकि हमने पाया है कि इस काल तक यह बहुत प्रचारित नहीं था तथा कबीर के पदों पर भी उसका कोई प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता. कबीर के यहाँ 'माया' अपने पूर्ववर्ती रूप 'लालच' के अर्थ में प्रस्तुत की गई है, भ्रम के रूप में नहीं." (मध्यकालीन लोकवादी एकेश्वरवाद तथा उसका मानवीय स्वरुप, अभिनव भारती (अलीगढ़, 1992-93) पृ0 9).
कबीर के असहमतिमूलक आक्रोश को दबा देने की भावना से उन्हें "संसार से विमुखता का उपदेश देने वाला योगी" भी कहा गया. जबकि तथ्य यह है कि कबीर ने जहाँ ब्राह्मणों के वर्चस्व को स्वीकार नहीं किया और उनपर खुलकर चोटें कीं, वहीं योगियों की अनेक बातों को घृणित दृष्टि से देखा और अपनी प्रखर असहमति व्यक्त की. वस्तुतः कबीर को संसार से विमुखता का उपदेश देने वाला योगी वही कह सकता है जो 'संसार' और 'सांसारिकता' के बीच कोई अन्तर नहीं करता. संसार से विमुख होना वैरागियों की प्रवृत्ति है और सांसारिकता का तिरस्कार और विरोध सूफी संतों का स्वभाव है. संसार से विमुख होना अपनी उन दुर्बलताओं की स्वीकृति है जो कहीं भय से और कहीं लोभवश मनुष्य को सच्चाई पर अडिग नहीं रहने देती. यह एक पलायनवादी दृष्टि है. सांसारिकता का तिरस्कार और विरोध वही कर सकता है जो ठोस चारित्रिक धरातल पर खड़ा हो और जिसमें बड़े-से-बड़ा जोखिम उठाने का साहस हो. जिसमें निद्रा और गफलत में पड़े समुदाय को झकझोर कर जगाने का जीवट हो. जो मानवाधिकार के प्रति सजग हो. सांसारिकता मनुष्य की समष्टि-वृत्ति को सुला देती है. सांसारिकता में लिप्त मनुष्य अपने 'स्व' में इतना घिर जाता है कि किसी प्रकार का शोषण करने में उसे संकोच नहीं होता. इसीलिए जो सांसारिकता से विमुख होता है वह कबीर की तरह ऊंचे स्वर में यह कहने का साहस रखता है -"जे घर फूंकै आपना, चलै हमारे साथ."
कबीर को व्यक्तिवादी बताना और उनकी साधना को व्यक्तिगत साधना का नाम देना, कबीर के क़द को छोटा करने का एक सोचा-समझा षड़यंत्र है और यह षड़यंत्र वही कर सकता है जिसे कबीर का एक साधारण जुलाहा होना खलता है. जो अपनी काल्पनिक अटकलों के आधार पर कबीर की जड़ें "बैरागियों" और "जोगियों" में देखने के लिए प्रयत्नशील है. ऐसे लोगों को कबीर की ललकार टीस बनकर चुभती है. "तुम ब्रह्मण होने का गर्व क्यों करते हो, मैं भी काशी का जुलाहा हूँ. तुम मेरे ज्ञान की थाह भी नहीं पा सकते. इसलिए मेरे ज्ञान को चुनौती मत दो."
कबीर के असहमतिमूलक आक्रोश का क्रांतिकारी स्वर आज अपनी प्रासंगिकता को जिस प्रकार गहरा रहा है, वह भी एक वर्ग को सह्य नहीं है. बल इस बात पर दिया जा रहा है कि कबीर का महत्त्व हिन्दी साहित्य में उनके कवि होने के कारण है, इसलिए उनपर विचार अंततः एक कवि के रूप में होना चाहिए. संत कवि और कवि संत रूप में, न कि समाज सुधारक या सामजिक क्रान्तिकारी के रूप में. यह वर्त्तमान साहित्यिक चिंतन के खिलाफ एक खुली साजिश है. इस साजिश में निर्गुण धारा की ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रति उस विरक्ति की स्पष्ट झलक है जो इस शाखा की रचनाओं का साहित्य होना स्वीकार नहीं करती. जिसे इन रचनाकारों की भाषा और शैली 'अव्यवस्थित' और 'ऊट-पटांग' दिखायी देती है. जिसे 'इन कवियों में भक्ति रस में मग्न करने वाली सरसता खोजने पर भी नहीं मिलती.' यह साजिश बार-बार दुहराना चाहती है कि "संस्कृत-बुद्धि, संस्कृत ह्रदय और संस्कृत वाणी का वह विकास इस शाखा में नहीं जो शिक्षित समाज को आकर्षित कर सके."
विचारणीय यह है कि यह 'सुसंस्कृत शिक्षित समाज' कहाँ और किस बौद्धिक गुफा में बंद है जिसे कबीर की रचनाएँ आकृष्ट नहीं करतीं ? विचारणीय यह भी है कि भक्ति रस में मग्न करने वाली सरसता किस दिशा का संकेत करती है और साहित्य के मूल्यांकन के किन प्रतिमानों को प्रतिष्ठित करना चाहती है ? स्पष्ट है कि यह साजिश तथाकथित भक्ति रस में मग्न करने वाली सरसता पर साहित्यिकता की मुहर लगाती है और भक्ति के नाम पर किए जाने वाले ढोंग को उकेरने वाली कविता को साहित्यिकता से खारिज कर देती है.
कबीर हों या जायसी, सूर और तुलसी, साहित्य में इनका महत्त्व निश्चय ही इनके कवि होने के कारण है. इस बात पर भला किसे आपत्ति हो सकती है. किसी धर्म विशेष के लोकरक्षक का चरित्र-काव्य लिखने से कोई कवि बड़ा नहीं हो जाता और रस, छंद, अलंकार के बंधनों को तोड़ कर कम्युनिकेटिव फोर्स को ही कसौटी मान लेने से कोई कवि छोटा नहीं कहा जा सकता. कविता का प्रतिपाद्य मानव होता है, भगवान नहीं. आश्चर्य है कि जिस कविता में आदि, मध्य और अवसान तक घोषित रूप से भगवान ही प्रतिपाद्य हो, वह आचार्य शुक्ल को भक्ति रस में पूरी तरह मग्न कर देती है. किंतु वह कविता जो जन-जन के मनोभावों से जुड़कर आध्यात्मिक स्तर पर गति प्राप्त करती है, जिसमें जीवन के तनावों-संघर्षों का सहानुभूतिपरक यथार्थ चित्रण है, जो मनुष्य और मनुष्य के बीच की भेदक रेखाओं को मिटाते हुए समानता पर आधारित प्रेम संबंधों की पोषक है, जिसमें आत्म-गौरव और आत्मविश्वास को विकसित करने की क्षमता है, आचार्य शुक्ल और उनके जैसे 'सुसंस्कृत शिक्षित समाज' को आकृष्ट नहीं करती. कबीर की कविता मनुष्य में हिंदुत्व अथवा इस्लामत्व नहीं जगाती. वह मनुष्य को उसके मनुष्य होने की पहचान देने का प्रयास करती है. हिंदुत्व और इस्लामत्व जगाने वाली कविता हिन्दुओं और मुसलमानों के लिए अलग-अलग पूजनीय और आदरणीय तो हो सकती है, साहित्य की परिधियों में रखकर उसे मूल्यांकित नहीं किया जा सकता.
कबीर ने अपने समकालीन हिन्दुओं और मुसलामानों से आँखें मिलाकर बात की. संवाद की स्थितियां बनायीं. उनकी कथनी और करनी का अन्तर देखकर क्षुब्ध भी हुए. वे चाहते थे कि यह मनुष्य जिसे परमात्मा ने सोचने-समझने और निर्णय लेने की शक्ति प्रदान की है, सुषुप्तावस्था से बाहर निकले. अपने मनुष्य होने के गौरव को समझे. बाह्य प्रदर्शनों से जुडी आस्थाओं की अलगाववादी जंजीरें तोड़कर धर्म की मूल चेतना से साक्षात्कार करे और परम सत्ता के एकत्व को मन की गहराइयों से पहचानने का प्रयास करे.
कबीर के समय तक सिद्धों, नाथों और योगियों के विभिन्न सम्प्रदाय जिनका सीधा टकराव ब्राह्मण धर्म से था, आम जनता में अपनी साख बना चुके थे. तांत्रिक बौद्ध धर्म से विक्सित सहजिया सम्प्रदाय डॉ. शशिभूषण दास गुप्त की दृष्टि में 'गुह्य साधना वाले योगि-सम्प्रदाय का बौद्ध प्रभावित रूप था' ( आब्स्क्योर रेलिजस कल्ट्स [1962], भूमिका, पृ0 33-34). इस गुह्य साधना का प्रवेश बंगाल के 'बाउल सम्प्रदाय', वैष्णव सहजिया सम्प्रदाय, नाथ सम्प्रदाय और धर्म सम्प्रदाय में तो हो ही चुका था, सूफी साधकों में भी इसके प्रति पर्याप्त आकर्षण था. वह ब्राह्मण धर्म जो दसवीं शताब्दी ई० तक अपनी गहरी जड़ें जमा चुका था, इन सम्प्रदायों के ब्राह्मण तथा वेद विरोधी रुख से ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी तक चरमरा गया था. वैष्णव सहजिया सम्प्रदाय की भाँति यद्यपि सहजिया सूफी नामक कोई सम्प्रदाय विकसित नहीं हुआ था, किंतु सैद्धांतिक स्तर पर चिश्तिया सम्प्रदाय के भीतर-भीतर अनेक ऐसी साधना पद्धतियाँ प्रवेश कर चुकी थीं जिनके प्रकाश में कुछ भारतीय सूफियों को सहजिया सूफियों की श्रेणी के अंतर्गत रखा जा सकता है.
सरहपाद ने अपने समय के धार्मिक वातावरण का जिन शब्दों में चित्रण किया है यदि उसका सूक्ष्मावलोकन किया जाय तो स्पष्ट संकेत मिलता है कि कबीर के समय तक उसकी अनेक बातें विद्यमान थीं. शैव, जैन तथा क्षपणक आदि मतावलंबियों के प्रभाव में पर्याप्त कमी आ गई थी और नाथ सम्प्रदाय के विकास के साथ इन सम्प्रदायों में प्रचलित अनेक पद्धतियाँ नाथ योगियों ने अपना ली थीं. सहज साधना में 'तीनों भुवनों की रचना करने वाले चित्त की शुद्धि' पर विशेष बल दिया जाता था. सरहपाद की अवधारणा थी कि 'जब नाद, बिन्दु अथवा चन्द्र और सूर्य के महलों का अस्तित्व नहीं और चित्तराज भी स्वभावतः मुक्त है, तब फिर सरल मार्ग का परित्याग कर वक्र मार्ग ग्रहण करना कहाँ तक उचित कहा जा सकता है. जो कुछ ब्रह्माण्ड में है वह सभी पिंड में भी है. परम तत्व की प्राप्ति के लिए पिंड पर विजय परम आवश्यक है.' ( हजारी प्रसाद द्विवेदी, नाथ सम्प्रदाय, पृ0 14). गोरखनाथ के समय तक नाथयोगियों के मध्य सहजयानी एवं शैव परम्पराएं पूरी तरह प्रवेश पा चुकी थीं.
तेरहवीं शताब्दी ईस्वी के प्रारंभ से ही सूफियों और योगियों के मध्य वैचारिक आदान-प्रदान और परस्पर चुनौतियों की स्थिति बनने लगी थी. योगियों और सिद्धों के चमत्कारों की चर्चा भारत से बाहर गज़नी, ईरान, खुरासान और तुर्किस्तान में भी होती थी. बाबा फरीद की खानकाह में बड़ी संख्या में योगी आते थे. शेख निजामुद्दीन औलिया प्रत्येक धर्म को आदर की दृष्टि से देखते थे. उन्होंने कहा भी था -"हर क़ौमे-रास्त-राहे, दीने व् किब्लागाहे" अर्थात प्रत्येक धर्म का अपना सीधा मार्ग है, अपनी आचार संहिता है और अपना उपासना स्थल है. वे योगियों और सिद्धों की गुह्य साधना से बहुत अधिक प्रभावित थे.(विस्तार के लिए देखिये हसन निजामीकृत फवायादुल-फुवाद पृ0 250-258). उन्हें इन योगियों से ज्ञान प्राप्त करने में सुखद आनंद का अनुभव होता था. शेख नसीरुद्दीन (मृ0 1366 ई0) ने श्वांस-प्रश्वांस के नियमन का ज्ञान योगियों से प्राप्त किया था. ( हमीद कलंदर, खैरुल-मजालिस,पृ 59-60 ). सैयद मुहम्मद अशरफ जहांगीर सिमनानी (मृ0 1346 ई0) के ग्रंथों में योगियों से संपर्क की अनेक झांकियां उपलब्ध हैं.
पंद्रहवीं शताब्दी तक आते-आते गोरखपंथी योगियों ने आन्दोलन चलाया कि समस्त पीर-पैगम्बर गोरखनाथ के चेले हैं. उनकी यह मान्यता भी चर्चा का विषय बनी कि हज़रत मुहाम्मद (स.) का पालन-पोषण गोरखनाथ ने किया था. उनका यह भी दावा था कि गोरखनाथ का मूल नाम 'बाबा रैन हाजी' था. ये गोरखपंथी मुसलामानों के साथ रोजा रखते थे और नमाज़ पढ़ते थे तथा हिन्दुओं के समूह में पूजा-पाठ करते थे. (मुहसिन फानी, दबिस्ताने-मज़ाहिब, (लखनऊ 1904), पृ0 179-80). इब्ने-बतूता ने 1335 ई0 में मुहम्मद बिन तुगलक के दरबार में एक योगी को हवा में उड़ते देखा था.(सैयद अतहर अब्बास रिज़वी, तुगलक कालीन भारत, भाग 1, पृ0 268).
महत्वपूर्ण बात यह है कि सूफियों और योगियों के मध्य वैचारिक आदान-प्रदान की भाषा हिन्दवी थी. शेख हमीदुद्दीन नागोरी और बाबा फरीद के घरों में भी हिन्दवी का प्रचलन था. आश्चर्य की बात यह है कि पंद्रहवीं शताब्दी ईस्वी तक सूफियों और वैष्णव आचार्यों के मध्य आपसी बात-चीत का कोई संकेत नहीं मिलता. वैष्णव भक्तों ने योगियों के साथ भी वैसे सम्बन्ध विकसित नहीं किए जैसे सूफियों के योगियों के साथ थे. वैष्णव परम्परा ब्राह्मणेतर तत्वचिन्तकों के समाज से पूरी तरह कटी हुई थी. कबीर के अध्ययन के लिए इन तथ्यों को दृष्टि में रखना अनिवार्य है.
ध्यान देने की बात यह भी है कि चौदहवीं शताब्दी ईस्वी में सूफियों, सिद्धों और नाथयोगियों से इतर तदयुगीन सामजिक जीवन में क़ल्न्दारों, हैदारियों और ज़्वालकियों की सशक्त भूमिका थी. यह लोग सामान्य रूप से दरवेश कहलाते थे. हैदरी कलंदर गर्दन और कान में लोहे के कड़े पहनते थे और नमाज़-रोजा जैसी किसी इस्लामी इबादत से कोई सम्बन्ध नहीं रखते थे. कुछ कलंदर ऐसे भी थे जो दाढी, मूछें और भवें तक मुंडवा लेते थे. इनके आक्रोश से सभी आतंकित थे और इनके विरुद्ध मुंह खोलने का साहस किसी में नहीं था. कलंदर शेख अबूबक्र तूसी इन्द्रप्रस्थ के समीप यमुना तट पर खानकाह बनाकर रहते थे. बू अली कलंदर (मृ0 १३२४ ई0) जिनकी आस्थाएं कबीर से बहुत भिन्न नहीं थीं, विशुद्ध एकत्ववादी (मुवह्हिद) थे. भक्ति के भावावेश में उन्होंने अपनी सभी पुस्तकें नदी में फ़ेंक दीं और दरवेश बन गए. कबीर भी बू अली कंदर की भाँति -"कबीर पढिबा दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ" का सुझाव देते हैं. दुखद स्थिति यह है कि मध्य युगीन हिन्दी साहित्य के अध्येता कबीर का अध्ययन करते समय कबीर युगीन समाज के इन महत्वपूर्ण पहलुओं पर सिरे से विचार ही नहीं करते. मेरी दृष्टि में कबीर का अध्ययन कबीर साहित्य की पूर्वपीठिका को समझे बिना किया ही नहीं जा सकता.
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'हिन्दी के मध्ययुगीन मुस्लिम कवि' पुस्तक से साभार

1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

आभार इस आलेख के लिए.