तीन ग़ज़लें
[ 1 ]
डर के किसी से छुप जाता है जैसे सौंप खज़ाने में
ज़र के ज़ोर से जिंदा हैं सब ख़ाक के इस वीराने में
जैसे रस्म अदा करते हों शहरों की आबादी में
सुब्ह को घर से दूर निकलकर शाम को वापस आने में
नीले रंग में डूबी आँखें खुली पडी थीं सब्ज़े पर
अक्स पड़ा था आसमान का शायद इस पैमाने में
दिल कुछ और भी सर्द हुआ है शामे-शह्र की रौनक में
कितनी जिया बेसूद गई शीशे के लफ्ज़ जलाने में
मैं तो 'मुनीर' आईने में ख़ुद को तक कर हैरान हुआ
ये चेहरा कुछ और तरह था पहले एक ज़माने में
[ 2 ]
गम की बारिश ने भी तेरे नक्श को धोया नहीं
तूने मुझको खो दिया, मैंने तुझे खोया नहीं
नींद का हल्का गुलाबी सा खुमार आंखों में था
यूँ लगा जैसे वो शब् को देर तक सोया नहीं
हर तरफ़ दीवारों-दर और उनमें आंखों का हुजूम
कह सके जो दिल की हालत वो लबे-गोया नहीं
जुर्म आदम ने किया और नस्ले-आदम को सजा
काटता हूँ जिंदगी भर मैंने जो बोया नहीं
जानता हूँ एक ऐसे शख्स को मैं भी 'मुनीर'
गम से पत्थर हो गया लेकिन कभी रोया नहीं
[ 3 ]
फूल थे बादल भी था, और वो हसीं सूरत भी थी
दिल में लेकिन और ही इक शक्ल की हसरत भी थी
जो हवा में घर बनाया काश कोई देखता
दस्त में रहते थे पर तामीर की हसरत भी थी
कह गया मैं सामने उसके जो दिल का मुद्दआ
कुछ तो मौसम भी अजब था, कुछ मेरी हिम्मत भी थी
अजनबी शहरों में रहते उम्र सारी कट गई
गो ज़रा से फासले पर घर की हर राहत भी थी
क्या क़यामत है 'मुनीर' अब याद भी आते नहीं
वो पुराने आशना जिनसे हमें उल्फत भी थी
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शुक्रवार, 11 जुलाई 2008
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