कबीर ( 1425-1505 ई0 ) के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलोचकों ने विभिन्न कोणों से विचार किया है और अपनी सीमा के अनुरूप अनेक ऐसी मान्यताएं स्थापित की हैं जिनके प्रकाश की चकाचौंध में कबीर के मूल स्वरुप की तलाश पर्याप्त दुष्कर हो गई है. नाभादास के भक्तमाल (1600 ई0), अनंतदास की 'कबीर साहब की परचई और दरिया साहब के ज्ञानदीपक की सामग्री के आधार पर कबीर का जो स्वरुप विकसित किया गया वह 'खजीनतुलअसफिया', अख्बारुलअख्यार तथा आईने-अकबरी में चर्चित कबीर से सर्वथा भिन्न है.
भक्तमाल के लेखक ने कबीर का परिचयात्मक विवरण देते हुए लिखा है कि उन्होंने "जातिव्यवस्था (वर्णाश्रम की मर्यादा) तथा छओं दर्शनों को मान्यता नहीं दी. उनका मानना था कि बिना भक्ति के धर्म भी अधर्म हो जायेगा और बिना भजन के योग, यज्य, दान, व्रत सब निरर्थक हैं. उन्होंने निष्पक्ष भाव से हिन्दुओं, तुर्कों सभी के हित के लिए रमैनी, सबद तथा साखी की रचना की. उन्होंने जो कुछ कहा निर्भीकता पूर्वक कहा, किसी को प्रसन्न करने के लिए नहीं." (भक्तमाल, छप्पय संख्या 516). स्पष्ट है कि भक्तमाल के लेखक नाभादास की दृष्टि में कबीर हिन्दुओं और मुसलामानों के समान रूप से हितैषी थे और भारतीय चिंतन को निष्पक्ष भाव से एक स्वस्थ आधार देना चाहते थे.
आईने-अकबरी में अबुल्फ़ज़्ल ने दो स्थलों पर उडीसा का इतिहास लिखते हुए जहाँ कबीर की चर्चा एक मुवह्हिद (एकत्ववादी) के रूप में की है, वहीं इस तथ्य का भी संकेत किया है कि कबीर ने जब सत्य को जान लिया तो वह सब कुछ जो सडा-गला था उसे पूरी तरह ठुकरा दिया (आईने-अकबरी, ब्लाकमैन,1,पृ0393 ).यह अभिमत कबीर के कथन "कूड़ कपट काया का निकस्या, हरि की गति जब जानी" की पुष्टि करता है.
अखबारूल-अख़यार के लेखक शेख अब्दुल हक़ ने भी जो अपने समय के प्रख्यात धर्माचार्य थे, शेख रिज़कुल्लाह मुश्ताकी (1491-1581) के सन्दर्भ से कबीर को मुवह्हिद (एकत्ववादी) घोषित किया है. शेख मुश्ताकी ब्रजभाषा में राजन उपनाम से कविताएं लिखते थे और 'पैमाना' तथा 'ज्योति-निरंजन' नामक उनके दो काव्य-ग्रन्थ पर्याप्त लोकप्रिय थे. सन्दर्भ से संकेत मिलता है कि सोलहवीं शताब्दी के मुस्लिम समाज में कबीर के धर्म और उनकी विचारधारा को लेकर अनेक प्रकार की जिज्ञासाएं विद्यमान थीं. शेख रिज़कुल्लाह मुश्ताकी ने अपने पिता शेख सादुल्लाह (मृ0 1522 ई0) से, जो कबीर के समकालीन थे, प्रश्न किया कि "प्रतिष्ठित हिन्दी कवि कबीर, जिनके पद प्रत्येक व्यक्ति की ज़बान पर हैं,मुसलमान थे अथवा काफिर ? उत्तर में उनके पिता ने कहा कि वे मुवह्हिद (एकत्ववादी) थे. शेख मुश्ताकी ने पुनः प्रश्न किया कि एक मुवह्हिद (एकत्ववादी) क्या एक मुसलमान अथवा एक काफिर से भिन्न होता है ? शेख सादुल्लाह ने उत्तर दिया- यह समझना तुम्हारे लिए कठिन है. तुम धीरे-धीरे इसे स्वतः समझ जाओगे." शेख अब्दुल हक़ की यह भी अवधारणा थी कि कबीर की रचनाएं सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में दिल्ली और आगरा के सूफियों की गोष्ठियों में सम्मान पूर्वक उद्धृत की जाती थीं. ( अख्बारुल-अख़यार, दिली 1914, पृ0 300 )
शेख अब्दुल हक़ के उपर्युक्त विवरण से तीन महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने आते है.
1. कबीर एकत्त्ववादी (मुवह्हिद) थे.
2. एकत्ववादी काफिर नहीं होता. किंतु उसे समझने के लिए परिपक्व ज्ञान अपेक्षित है.
3. कबीर की रचनाएं दिल्ली और आगरे की सूफी गोष्ठियों में सम्मानपूर्वक उद्धृत की जाती थीं.
पंद्रहवीं शताब्दी में सूफियों की मुख्य रूप से दो विचारधाराएं विशेष चर्चा में थीं. एक, वह्दतुश्शहूद अथवा साक्ष्यवादी विचारधारा और दूसरी वहदतुल्वुजूद अथवा एकत्ववादी विचारधारा.पहली विचारधारा के सूफी जो शहूदी कहलाते थे शरीअत-सम्मत इस्लामी चिंतन के पक्षधर थे. दूसरी विचारधारा के सूफी जो वुजूदी कहलाते थे धार्मिक बाह्याचारों और कर्मकांडों के प्रति आस्थावान नहीं थे और शरीअत के पाबन्द मुसलामानों के समाज में काफिर समझे जाते थे.बू अली कलंदर, मसऊद बक, शेख अब्दुल कुद्दूस अलखदास, इत्यादि कबीर के समकालीन सूफी जिनकी हिन्दवी रचनाएं भी उपलब्ध हैं दूसरी अर्थात एकत्वावादी विचारधारा के थे. मुल्ला दाऊद और मलिक मुहम्मद जायसी आदि शहूदी अर्थात साक्ष्यवादी आस्था के रचनाकार थे.
मुवह्हिद अथवा एकत्ववादी होना भले ही इस्लामी धर्माचार्यों की दृष्टि में शरीअत-सम्मत न रहा हो, किंतु ऐसे सूफियों को आसानी से काफिर कहने का साहस भी इस्लामी धर्माचार्यों में नहीं था. शरीअत सम्मत अर्थों में तो प्रसिद्ध उर्दू कवि मिर्जा ग़ालिब भी मुसलमान नहीं थे और उन्होंने अपना मुवह्हिद (एकत्ववादी) होना स्पष्ट शब्दों में स्वीकार भी किया था -
हम मुवह्हिद हैं, हमारा कीश है तरके-रुसूम
मिल्लतें जब मिट गयीं, अजज़ाए-ईमाँ हो गयीं (दीवाने-ग़ालिब, दिल्ली 1997, पृ0 107)
यहाँ तरके-रुसूम से अभिप्राय धार्मिक बाह्याचारों और आडम्बरों के परित्याग से है और कीश का अर्थ प्रवृत्ति अथवा व्यवहार है. विभिन्न मिल्लतों या सम्प्रदायों में बँटे लोग यदि अपने अपने धार्मिक बाह्याचारों का परित्याग करदें, तो गालिब की दृष्टि में मिल्लतें स्वतः मिट जायेंगी और सभी सम्प्रदाय एक ही ईश्वरी आस्था (ईमान) का अंश प्रतीत होंगे. एकत्ववाद में विशवास रखने वाला मनुष्य और मनुष्य के बीच कोई भेद नहीं करता. कबीर इसीलिए इस विभाजन रेखा पर सर्वत्र प्रहार करते हैं. यह विभाजक रेखा बाह्याचारों की है, बाह्याडम्बरों की है जो ईश्वर द्बारा निर्मित न होकर धर्माचार्यों के स्वकेंद्रित चिंतन से जन्मे हैं. अकबरी दरबार के प्रख्यात फ़ारसी कवि उर्फी की स्पष्ट अवधारणा थी -
"उर्फी अच्छे और बुरे सभी लोगों के साथ मिल-जुल कर रहो कि जब इस संसार से विदा लो तो मुसलमान तुम्हें आबे-ज़मज़म से नहलाएं और हिन्दू तुम्हारी चिता सजाएं" (क़साएदे-उर्फी, मुंशी नवल किशोर प्रेस 1923. पृ0 97) प्रतीत होता है कि यह शेर लिखते समय उर्फी के समक्ष कबीर का सम्पूर्ण व्यक्तित्व जीवंत हो उठा था.
कबीर के आलोचकों ने या तो एक सिरे से कबीर के एकत्ववादी (मुवह्हिद) होने के प्रामाणिक सन्दर्भ को चिंतन के योग्य ही नहीं ठहराया या जान बूझकर आईने-अकबरी और अख्बारुल-अख़यार से आँखें मूँद कर रामानंदी कबीर की प्रतिमा गढ़ते रहे. इन आलोचकों के निकट सम्प्रदायगत आस्थाओं वाली जनश्रुतियों पर आधारित रचनाएं प्रामाणिक बन गयीं और प्रामाणिक ग्रंथों के उद्धरण आस्थानुकूल न होने के कारण अर्थहीन बन गए.
हरिऔध से लेकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल तक और आचार्य शुक्ल से लेकर डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ही नहीं पं.विष्णुकांत शास्त्री तक, सभी ने कबीर के भीतर उफनते समुद्री तूफ़ान को साहिल पर खड़े होकर देखना और मूल्यांकित करना चाहा. और इन महानुभावों कि ओट में खड़े इनके प्रति आस्थावान आलोचक जय-जयकार की मुद्रा में इनके निष्कर्षों को कालजयी घोषित करते रहे. काश इन महानुभावों ने पानी में उतरने का प्रयास किया होता और लहरें गिनने के बजाय लहरों के थपेडों की हलकी चोट भी महसूस की होती तो इन्हें क्रांतिकारी समाजचेता कबीर को मात्र रहस्यवादी, निर्गुण निराकार का उपासक, संसार से विमुखता का उपदेश देने वाला आदि बनाकर ठंडे बसते में लपेटने के प्रयास का अवसर न मिलता.
आश्चर्य उस समय और भी होता है जब पं. विष्णुकांत शास्त्री विभिन्न सन्दर्भों का उपयोग करते हुए मुवह्हिद (एकत्ववादी) को सूफी नहीं मानते. अज्ञान को ज्ञान का आधार बनाकर निर्णय लेने का यह तरीका अदभुत है. काश पं. विष्णुकांत शास्त्री ने 'मुवह्हिद' के सम्बन्ध में कुछ पढ़ा होता. आवश्यक प्रतीत होता है कि यहाँ मुवह्हिद की थोडी सी जानकारी दे दी जाय. इस जानकारी के अभाव में कबीर के सम्बन्ध में किसी निध्कर्ष तक पहुँचाना तर्क-सांगत प्रतीत नहीं होता. बाबा फरीद (मृ0 1265 ई0) के सुपुत्र ख्वाजा याकूब ने मुवह्हिद की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया है कि "मुवह्हिद (एकत्ववादी) वास्तव में वह है जिसका मुख्य उद्देश्य सदाचार है. वह जो भी करता है उसका लक्ष्य परमात्मा की कृपा प्राप्त करना होता है. पानी उसे डुबोने में असमर्थ है और आग उसे जलाने में असफल. वह सत्ता के एकत्व में पूरी तरह डूबा होने के कारण अपने 'स्व' का पूर्ण विनाश कर देता है. एक सूफी जो इस अवस्था को प्राप्त कर लेता है, प्रत्येक प्रकार की चिंता से मुक्त हो जाता है. यदि वह अपनी खोज करता है तो ईश्वर को पाता है और यदि ईश्वर को खोजता है तो स्वयं को पाता है. जब प्रेमी प्रियतम में पूरी तरह खो जाता है, तो प्रेमी और प्रियतम के गुण अभिन्न हो जाते हैं." (अब्दुल्लाह ख्वेशगी, मेराजुल-विलायत (हस्त-लिखित) पंजाब विश्वविद्यालय लाहौर, पत्र संख्या 15 अलिफ़). एकत्ववादी सूफी का उपर्युक्त परिचय कबीर के सम्पूर्ण जीवन की एक प्रकार से झांकी प्रस्तुत कर देता है.
प्रसिद्ध सूफी चिन्तक जुनैद ( मृ0 910 ई0 ) के मतानुसार "मुवह्हिद (एकत्ववादी) सांसारिक अस्तित्व से ऊपर उठकर और सामान्य मानवीय अस्तित्व से मुक्त होकर परमसत्ता के साथ एकमेक हो जाता है. इसी अवस्था में वह सच्ची तौहीद (एकत्व) को प्राप्त करता है. जबतक वह अपनी वैयक्तिकता को समाप्त नहीं करता वह मुवह्हिद के परमपद को प्राप्त करने में असमर्थ होता है. (ए. एच. अब्दुल्कादर, द लाइफ पर्स्नालिटी एंड राइटिंग आफ अल-जुनैद, लन्दन 1962, पृ0 79 ).कबीर ने "जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं" में इसी तथ्य को व्यक्त किया है.
कबीर का 'अवधूत' अथवा 'अवधू' या 'जोगी' वस्तुतः इसी मुवह्हिद के समानार्थक है जिसे सूफियों की सामान्य शब्दावली में 'आरिफ़' कहा गया है. जुनैद ने आरिफ़ और मुवह्हिद में कोई भेद नहीं माना है. उनके मतानुसार "आरिफ़' उस समय तक आरिफ़ नहीं होता जबतक वह धरती के स्वभाव का न हो जाय जिसपर पवित्र अपवित्र सभी चलते हैं. वह बादल की भांति प्रत्येक वस्तु पर छा जाता है और वर्षा की भांति पसंद-नापसंद का ध्यान किए बिना प्रत्येक स्थल को समान रूप से तर कर देता है."(वही,पृ0 102 ) कबीर ने इसी दृष्टि से अवधू जोगी को जग से न्यारा बताया है -" अवधू जोगी जग थैं न्यारा" मुवह्हिद, आरिफ़ अथवा अवधूत उस सहजानुभूति को प्राप्त कर लेता है जहाँ सरहपाद के शब्दों में "णउ पर णउ अप्पा" अर्थात अपने और पराये का भेद मिट जाता है. कबीर का यह अवधू अविनाशी से चित्त चिहुटा देने की बात करता है, अपने घर में कामधेनु को बाँध कर सांसारिक उपकरणों के सभी कच्चे बर्तन फोड़ देता है, नींद को कभी पास फटकने नहीं देता और सदैव जागता रहता है. उसे न काल खा सकता है, न कल्प प्रभावित कर सकता है न ही जरावस्था उसे क्षीण कर सकती है. वह परम पद में लीन रहता है, घर में रहकर ब्रह्म में माता रहता है,मृत्यु से न दूर रहता है न निकट न ही मर सकता है. यह सभी गुण कबीर के एकत्व वादी होने की पुष्टि करते हैं.
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प्रो. शैलेश जैदी की पुस्तक हिन्दी के मध्ययुगीन मुस्लिम कवि से साभार
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