यहाँ कबीर ने सूफियों के इजमाल (संकुचन) और तफ़सील (विस्तारण) के सिद्धांत की पुष्टि करते हुए जगत की भेद-रहित स्थिति और उसके उसी स्थिति से प्रकट होने का संकेत किया है. सूफियों के अनुसार नबीश्री हज़रत दाउद की जिज्ञासा पर परमात्मा ने उन्हें बताया "कुंत कन्ज़न मख्फ़ीअन फ़'अज़ैत इन्न आरिफ़ फ़ख़लक़्तुल खलक़ लिआरिफ़" अर्थात् मैं एक छुपी हुई निधि था, मेरी इच्छा हुई कि मैं पहचाना जाऊं,अतः मैं ने जगत की रचना की जिससे कि मैं पहचाना जा सकूँ. इस कथन की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया गया है कि परम सत्ता समस्त गुणों से युक्त है और जगत उस सत्ता के गुणों का ही प्रतिरूप है. यह छुपी हुई निधि अर्थात् जगत उस परम सत्ता में उसी प्रकार निहित थी जिस प्रकार बीज में वृक्ष.(शेख अब्दुल कुद्दूस गंगोही, रुश्द्नामा, हस्त लिखित).कबीर का अभिप्रेत भी यही जान पड़ता है. अभिनव गुप्त ने बटघानिका के दृष्टांत से यद्यपि यही बात कही है "न्याग्रोध बीजस्थ शक्ति रूपों महाद्रुम / तथा ह्रदय बीजस्थ जगदेच्चराचरम" किंतु कबीर की विचारधारा इससे थोड़ा हटकर है. कबीर ने अन्य स्थलों पर भी "आपणा माझे आप छिपाया" तथा " सूक बिरख यह जगत उपाया" के माध्यम से अपनी अवधारण स्पष्ट की है.
जिस समय केवल बीज होता है, प्रकट रूप में न शाखाएँ होती हैं, न पत्ते, न फूल और न फल. किंतु बीज के भीतर ये सभी विद्यमान होते हैं. "हमरे मांह रहल सब कोई" कहकर कबीर परम सत्ता के भीतर विद्यमान किंतु अदृश्य जगत की इसी स्थिति का संकेत करते हैं. और फिर यह उदघोष "खालिक खलक़, खलक़ मैं खालिक, , सब घट रह्यो समाई" इस तथ्य को और भी गहरा देता है कि समस्त जीवात्माओं से भरे इस जगत को परम सत्ता से अलग नहीं किया जा सकता. शंकर का अद्वैत इस अवधारणा के साथ मेल नहीं खाता. कबीर परम सत्ता की अद्वितीयता और आत्मा परमात्मा की अभिन्नता को स्पष्ट शब्दों में स्वीकार करते हैं - "हम सब माहिं, सकल हम माहीं / हम थैं और दूसरा नाहीं." सूफी कवि उसमान ने इसी विचार को चित्रावली में इन शब्दों में व्यक्त किया है-"सब वह भीतर वह सब माहिं / सबै आपु दूसर कोई नाहिं."
जगत की रचना से पूर्व भी परमात्मा की अनादि, अनंत एकान्तिक सत्ता अपनी अदभुत अद्वितीयता के साथ विद्यमान थी. प्रख्यात एकत्ववादी सूफी तत्ववेत्ता एवं कवि अबू सईद अबिल्खैर (मृ0 1049 ई0) एक स्थल पर लिखते हैं -
आं वक़्ते कि ईं अन्जुमो-अफ़लाक न बूद.
ईं आबो-हवा व आतिशो-ख़ाक न बूद.
असरारे-यगानगी सबक़ मी गुफ़्तम,
ईं क़ालिबो-ईं- नवा व इदराक न बूद..
(रुबाइयाते-अबूसईद अबिल्खैर, लाहौर पृ0७०).
अर्थात्- “प्रभु का कथन है कि जिस समय यह सितारे और आकाश न थे और ये पानी, हवा, आग, और धरती तत्व न थे, मैं उस समय भी अपनी अद्वितीयता के रहस्यों का पाठ कर रहा था. किंतु जीवात्मा की इस काया और इसमें विद्यमान ध्वनि और बुद्धि के न होने के कारण उन रहस्यों को समझने वाला कोई नहीं था."
अबू स'ईद अबिल्खैर के उपर्युक्त कथन की तुलना कबीर की इन पंक्तियों के साथ कीजिए -
समद नाहीं, सिषर नाहीं, धरती नाहीं गगना,
रवि ससि दोउ एकै नाहीं, बहत नाहीं पवना,
नाद नाहीं, ब्यंद नाहीं, काल नाहीं काया,
जब तैं जलब्यंद न होते, तब तूं ही राम राया. (पदावली,219)
अबू स'ईद अबिलखैर का दृढ़ विश्वास था कि परम सत्ता पिंड में स्थित है और इस मनुष्य को चाहिए कि मक्के में स्थित काबे का हज करने के बजाय पिंड में स्थित काबे का हज करे जहाँ प्रभु का निवास है आर.सी. जेहनेर, (हिंदू एण्ड मुस्लिम मिस्टिसिज़्म, पृ0 177). कबीर भी "सत्तर काबे इक दिल भीतर" की घोषणा करते हैं. कबीर के सूफी चिंतन को समझने के लिए आवश्यक जान पड़ता है कि प्रसिद्ध सूफी अब्दुल्लाह अंसारी (1005-1089) की एक मुनाजात पर विचार कर लिया जाय. पूरी मुनाजात यहाँ रूपांतरित करना उपयुक्त नहीं है, इसलिए सार रूप में मुनाजात के कुछ अंश प्रस्तुत हैं-
“जान लो कि नबी ने पानी और मिट्टी से / एक बाह्य काबा निर्मित किया./ और प्राण और ह्रदय में एक आतंरिक काबा भी / बाह्य काबा पवित्र इब्राहीम ने /और आतंरिक काबा अल्लाह ने स्वयं बनाया./भरपूर प्रयास करो /कि आतंरिक काबे की उपासना कर सको /ह्रदय पर विजय प्राप्त करो /ताकि कुछ बन सको / एक व्यक्ति वह है जिसने सत्तर वर्ष पढ़ा /और कोई प्रकाश न कर सका /एक वह है जिसने कभी कुछ पढा ही नहीं / बस एक शब्द उसके कानों में पड़ गया /जिसे उसने आत्मसात कर लिया /और वह तृप्त हो गया /इस मार्ग में कोई तर्क नहीं है,/बस खोजो, ताकि सत्य को पा सको.”
(द पर्शियन मिस्टिक्स, पृ0 35)
कबीर के "कांकर पाथर जोड़ के, मस्जिद लियो बनाय" तथा "पोथी पढि पढि जग मुवा, भया न पंडित कोय / ढाई आखर प्रेम का, पढे सो पंडित होय." का गूढार्थ उपर्युक्त मुनाजात के प्रकाश में बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है. " पूजा करूँ न निमाज गुजारूं, / इक निराकार ह्रदय नमस्कारुं" कहने वाले कबीर यह देख कर दुखी हैं कि "मन मसीत किनहूं न जाना". वे आकाश के बीच बहने वाली सरिता अर्थात हौज़े-कौसर में स्नान कर चुके हैं - "आसमान म्याने लहंग दरिया, तहां गुसल करदा बूद." इस लिए मुस्लिम मुल्लाओं को मधुर कंठ में अजान देने और नमाज़ के लिए मुसल्ले (जानमाज़) पर जम कर बैठने के बजाय चित्त के भीतर नमाज़ पढ़ने का उपदेश देते हैं. ऐसे मुल्ला के नाम की गूँज सर्वत्र फैल जायेगी.
मुलनां बंग देइ सुर जानीं, आप मूसला बैठा तानीं.
आपुन में जे करै निमाजा, सो मुलना सर्बत्तर गाजा
वस्तुतः यह "कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर" की अवधारणा को व्यावहारिक रूप देने की स्थिति है. यहाँ "काबा फिर कासी भया" के मर्म को अनुभव के धरातल पर महसूस करने किया जा सकता है. यहाँ "हज काबे को जाइथा, आगे मिला खुदाई / मीरां मुझसे यों कहा, तुझे किन्हीं फरमाई" की मंजिल मुखर हो उठी है. 'आपुन में जे करै निमाजा' के गूढ़ अर्थ को समझने के लिए फ़ारसी कवि मलिक मसऊद का निम्न लिखित शेर द्रष्टव्य है -
नमाज़ि-मस्ति-खराबात नौइ-दीगर दान
दरिन नमाज़ न बाशद रवा रुकूओ-सुजूद
अर्थात्- उसके मदिरालय से इश्क की शराब पीकर जो मस्त हैं उनकी नमाज़ कुछ और ही प्रकार की है. उस नमाज़ में रुकू और सजदे की अपेक्षा नहीं रहती.स्पष्ट है कि यह नमाज़ आम मुसलामानों की तरह मुसल्ले पर बैठ कर नहीं पढी जाती. साधक इसे ध्यानावस्था में ही पढ़ता है.
अबू स'ईद अबिलखैर, अब्दुल्लाह अंसारी, बायजीद बिस्तामी, सरमद इत्यादि सूफियों की एक बड़ी संख्या है जो पवित्र काबे को चित्त के भीतर ही स्वीकार करते हैं. उनकी दृष्टि में 'काबा' साधक और साध्य का मिलन स्थल है और हज साधना मार्ग का प्रतीक. इस स्थिति को स्वीकार किए बिना यदि साधक काबे के स्थूल रूप के पीछे दौड़ता है तो उसका गुरु भी उससे प्रसन्न नहीं होता - "हज काबे ह्वै ह्वै गया, केती बार कबीर / मीरां मुझ में क्या खता, मुखां न बोलै पीर" किंतु कबीर को गुरु-कृपा से अपनी मूर्खता का शीघ्र ही आभास हो गया -"ज्यूँ नैनन में पूतली, त्यूं खालिक घट माहिं / मूरखि लोग न जाणहीं, बाहर ढूँढण जाहिं", अब कबीर को हज के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं रह गई.
ख्वाजा फरीदुद्दीन अत्तार ने अपने एक शेर में कहा है-"हरचे दीदी ज़ाति-पाके-ऊ बुवद / ईं चुनीं दीदन तरा नेकू बुवद" अर्थात्- तू जो कुछ देखता है सब उसी की परम सत्ता है. तेरा इस प्रकार देखना तेरे लिए शुभ सिद्ध हुआ. श्रीप्रद कुरआन में कहा गया है- "फ़ऐनुमा तवल्लू फ़सम्म वजहुल्लाह"(24/35) अर्थात् तुम जिधर भी मुंह करोगे उधर अल्लाह का चेहरा होगा. मिर्जा गालिब से जब धर्मोपदेशक (वाइज़) ने मस्जिद में बैठकर शराब पीने से मना किया तो उनका कवि सहज भाव से कह उठा -"वाइज़ शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर / या वो जगह बता कि जहाँ पर खुदा न हो."कबीर के समक्ष भी ऐसी समस्या आई होगी जिसपर कबीर की असहमतिमूलक चेतना कसमसा उठी और कबीर ने बड़े तीखे ढंग से चोट की -"जहाँ मसीत देहुरा नाहीं, तहं काकी ठकुराई." कबीर का साधना-जन्य ज्ञान उनपर कुछ और ही सत्य उदघाटित कर चुका था- "जहाँ जहाँ जाई, तहां तहां रामा." फरीदुद्दीन अत्तार के उपर्युक्त शेर की सहज गूँज कबीर में सर्वत्र देखी जा सकती है.
कबीर भी अपने पूर्ववर्ती सूफियों की भाँति श्रीप्रद कुरआन की इस आयत में आस्था रखते हैं -"अल्लाहु नूरुस्समावति वल अर्ज़" अर्थात परम सत्ता पृथ्वी और आकाश की ज्योति है. उस ज्योतिस्वरूप परमात्मा ने अपने सौन्दर्य (जमाल) का दर्शन करने की इच्छा से स्वयं को जो सूक्ष्म था, अपना दर्पण बनाया अर्थात स्थूल रूप में व्यक्त किया और अपने सौन्दर्य का अपने आप में दर्शन किया. कबीर के अनुसार परम सत्ता -"आपन रूप को आपहि जानै, आपन रहै अकेला" यहाँ अकेला शब्द संख्यावाचक न होकर अस्तित्व या सत्ता के एकत्व का द्योतक है जो पूर्ण, अद्वितीय एवं भेद रहित है. भेद की पूँछ पकड़ कर भवसागर नहीं पार किया जा सकता-" पूँछ ज पकडी भेद की,उतरा चाहै पार." इसके लिए एकान्तिक सत्ता (वुजूदे-मुतलक) से परिचय होना आवश्यक है जो पूर्ण मानव (इन्सान-कामिल), वली, सद्गुरु और सिद्ध पुरूष है. इस परिचय के बाद सम्पूर्ण दुःख समाप्त हो जाता है. -"पूरे से परिचय भया, सब दुःख मेल्या दूरि" यह "जो जाँचौ तो केवल राम" और "केवल राम रहै ल्यौ लाइ." की स्थिति है, पूर्णतः भेद रहित है. यहाँ "मैं तैं, तैं मैं,ए द्वै नाहीं" का अनुभूतिजन्य ज्ञान अनिवार्य है. इसके बाद "हरि मैं तन है, तन मैं हरि है" की वास्तविकता का सहज बोध हो जाता है. अबू स'ईद अबिल खैर की प्रसिद्ध रुबाई द्रष्टव्य है-
मन तू शुदम तू मन शुदी, मन तन शुदम तू जां शुदी
ताकस न गोयद बाद अज़ीं, मन दीगरम तू दीगरी
(रुबाइयाते-अबू स'ईद अबिल खैर,लाहौर, पृ0 17)
अर्थात्- मैं तू हो गया, तू मैं हो गया, मैं शरीर हो गया, तू प्राण हो गया, ताकि फिर कोई यह न कह सके कि मैं कोई और हूँ और तू कोई और.
मालिक मुहम्मद जायसी के काव्य का विवेचन करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है -'इस अद्वैतवाद के मार्ग में बाधक होता है अंहकार. यह अंहकार यदि छूट जाय तो इस ज्ञान का उदय हो जाय कि सब मैं ही हूँ. मुझ से अलग कुछ नहीं है.'(जायसी ग्रंथावली, भूमिका,पृ0 146). कबीर का व्यक्तित्व इस ज्ञान के उदय से पूरी तरह जगमगा उठा था. जभी तो कबीर निःसंकोच भाव से कहते है -"मैं मैं मेरी जिन करैं, मेरी मूल बिनास" और अंततः "जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं / सब अंधियारा मिटि गया, दीपक देख्या माहिं" इतना ही नहीं, "तूं तूं करता तूं भया, मुझ में रही न हूँ" कबीर में ज्ञान का यह उदय उन्हें मंसूर हल्लाज, बायजीद बिस्तामी और समद की पंक्ति में खड़ा कर देता है. तत्वज्ञान की यह एकत्ववादी परम्परा वैष्णव कवियों की रचनाओं में नहीं दिखायी देती. राममय होना और स्वयं राम हो जाना, दो अलग-अलग स्थितियां हैं. कबीर का रामत्व परम सत्ता की अनंतता का गुण है. इसलिए कबीर स्पष्ट शब्दों में उदघोष करते हैं - "राम मरैं तब हमहूँ मरिहैं". किंतु कबीर को संसारी जनों की नश्वरता का पूरी तरह आभास है. कबीर का रामत्व सांसारिकता से पूरी तरह मुक्त है. "हम न मरैं, मरिहै संसारा" में इसी तथ्य का संकेत है.
सूफ़ी कवियों ने श्रीप्रद कुरआन के आधार पर परम तत्व की अद्वितीयता और सौन्दर्यशीलता का अदभुत विवेचन किया है. उनके अनुसार परम तत्व की ज्योति से समस्त संसार प्रकाशित है. सम्पूर्ण सृष्टि की दीप्ति और सौन्दर्य उसी से उदभासित है. हाफिज़ शीराजी की दृष्टि में "हर दो आलम यक फ़रोगे-रूए-उस्त" (दीवाने-हाफिज़, लाहौर, पृ0 459).अर्थात् - दोनों लोक उसके मुख के तेज से आलोकित हैं. कबीर ने इसी तथ्य को इन शब्दों में व्यक्त किया है- "कबीर तेज अनंत का, मानो ऊगी सूरज सेणि" कबीर की दृष्टि में उसका तेजयुक्त सौन्दर्य वाणी द्बारा व्यक्त नहीं किया जा सकता. वह तो एकमात्र दर्शन का विषय है- "कहिबे को सोभा नहीं, देख्या ही परवान." वह परम सत्ता तेज पुंज पारस घणी है. जहाँ मलिक मुहम्मद जायसी सृष्टि की लालिमा में प्रियतम के आलोक का परम साक्षात्कार करते हैं (पदमावत, पृ0 98), वहीं कबीर भी "लाली मेरे लाल की, जित देखो तित लाल / लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल." के आनंदप्रद अनुभव से गुज़रे बिना नहीं रहते.
सूफ़ी कवियों ने नबीश्री की हदीस "परम सत्ता ने अपने नूर से सर्वप्रथम मेरे नूर की सृष्टि की" के आधार पर नबीश्री हज़रत मुहम्मद (स.) की ज्योति को सम्पूर्ण सृष्टि की रचना का कारण स्वीकार किया है. ख्वाजा फरीदुद्दीन अत्तार ने इस प्रसंग में कहा है-
हक़ चूँ दीद आं नूरे-मुतलक दर हुज़ूर
आफरीद अज़ नूरे-ऊ सद बहरे नूर. (मन्तिक़ुत्तयर, लखनऊ,पृ0 16)
अर्थात्-परम सत्य प्रभु ने अपना प्रकाश जब हज़रत मुहम्मद में देखा तब उनके प्रकाश से सृष्टि रुपी प्रकाश के सागर को पैदा किया.
"प्रथम जोति बिधि ताकर साजी / औ तेहि प्रीति सिहटि उपराजी" (पदमावत,पृ0 ४), के माध्यम से जायसी ने इसी आस्था का उदघाटन किया है. "एक ज्योति संसारा" के पक्षधर कबीर की आस्था मलिक मुहम्मद जायसी सहित अन्य सूफ़ी कवियों से भिन्न नहीं है. कबीर की यह पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -
अल्ला एक नूर उपाया, ताकी कैसी निंदा
ता नूर थैं सब जग कीया, कौन भला कौ मंदा.(पदावली, 51)
यहांपर यद्यपि कबीर ने हज़रत मुहम्मद (स.) का नामोल्लेख नहीं किया है, किंतु उनका अभिप्रेत वही है जो अन्य सूफियों का है. आगे की पंक्तियों में यह बात और स्पष्ट हो जाती है. इब्ने अरबी की परम्परा के सूफियों ने नबीश्री को इन्साने-कामिल अर्थात् पूर्ण मानव स्वीकार किया है. यह पूर्ण मानव परम सत्ता की प्रतिमूर्ति है. सद गुरु के ज्ञानोपदेश से जब इस पूर्ण मानव का सान्निध्य प्राप्त हो जाता है. तो सभी प्राणियों में परम सत्ता का वास दृष्टिगत होता है -"ता अला की गति नहीं जानी गुरु गुड दिया मीठा. / कहै कबीर मैं पूरा पाया, सब घटि साहब दीठा."यहाँ पूरा पाया का प्रयोग द्रष्टव्य है.
मैं समझता हूँ कि उपर्युक्त विवेचन के आधार पर एक बात स्पष्ट हो जाती है कि कबीर काव्य का अध्ययन सूफ़ी तत्व चिंतन की पृष्ठभूमि में किए बिना सम्पूर्ण अध्ययन अधूरा रह जाता है.
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