कबीर का चित्र बनाते समय भी वैष्णव चिंतकों ने उन्हें अपनी मानसिकता के अनुरूप देखने के विचार से उनके माथे पर तिलक जमाकर रुद्राक्ष की एक लम्बी सी माला उनके गले में डाल दी और शीश पर मोरमुकुट सजा दिया. कंठी, माला, तिलक आदि का जीवन-पर्यंत विरोध करने वाले कबीर के इस चित्र को बार-बार छाप कर इतना अधिक प्रचारित, प्रसारित और विज्ञापित किया गया कि श्यामसुंदर दास द्वारा कबीर ग्रंथावली के प्रथम संस्करण में प्रकाशित चित्र पाठकों की स्मृति से पुरी तरह ओझल हो गया. यह वैष्णव मानसिकता अचानक एक दिन में विकसित नहीं हो गई. जप, माला छापा तिलक, सरे न एकौ काम ' की उक्ति अर्थहीन बना दी गई और हरिऔध द्वारा प्रचारित कबीर की वैष्णव छवि को स्थायी स्वीकृति दे दी गई. श्यामसुंदर दास वाले कबीर की लम्बी श्वेत दाढी और मुखाकृति से फूटता हाला इतिहास के मलबे में दब गया.
डॉ0 राकेश गुप्त रामानंद और कबीर के गुरु-शिष्य सम्बन्ध पर प्रश्न चिह्न लगाते हुए लिखते हैं - रामानंद वैष्णव थे, राम को विष्णु का अवतार मानते हुए सगुण उपासना का प्रचार उनका मुख्य उद्देश्य था। कबीर ने अवतारवाद और सगुण उपासना का 'सिरजनहार न ब्याही सीता', ताहि अगस्त अंचय गयो , इनमें को करतार ', तथा 'दुनिया ऐसी बावरी पाथर पूजन जाय,' जैसे वाक्य कहकर अनेक स्थलों पर स्पष्ट विरोध और उपहास किया। ....वेद , शास्त्र, स्मृति एवं पुराण के प्रति रामानंद की अगाध श्रद्द्धा थी। कबीर ने किर्तिम इस्मृति वेद पुराना' आदि कहकर हिन्दुओं के सभी ग्रंथों में अपना घोर अविश्वास प्रकट किया और उन्हें केवल पाखण्ड के प्रचार का साधन बतलाया (डॉ0 राकेश गुप्त , सूर सूर तुलसी ससी, प्री ० ९५) .
यहाँ इस तथ्य को स्पष्ट कर देना भी आवश्यक है कि रामानंद हनुमान की आरती पर विशेष बल देते हैं और शालिग्राम की पूजा का विधान करते दीखते हैं. जबकि कबीर न तो हनुमान के प्रति आस्थावान हैं, न ही शालिग्राम का कोई महत्त्व स्वीकार करते हैं. रामानंद हिन्दुओं को अन्य धर्मावलंबियों से जन्मना श्रेष्ठ समझते हैं और शूद्रों को वेद पढने के अधिकार से वंचित रखते हैं (रामधारिसिंह दिनकर, संस्कृति के चार अध्याय, पृ0 ३७७ ). फिर तथ्य यह भी है कि सत्रहवीं शताब्दी से पूर्व कबीर के गुरु के रूप में रामानंद की कोई चर्चा नहीं मिलती. शंकर वेदांत विषयक प्रो0 इरफान हबीब की यह अवधारणा पर्याप्त महत्वपूर्ण है कि पंद्रहवीं तथा सोलहवीं शताब्दी के लोकवादी एकेश्वरवाद का न तो शंकर वेदांत को स्रोत कहा जा सकता है और न ही उसपर उसके प्रभाव की कोई संभावना दिखायी पड़ती है. (प्रो0 इरफान हबीब,अभिनव भारती, १९९२-९३, पृ0 ३, ९ ). डॉ. लल्लन राय ने ठीक लिखा है कि भक्ति आन्दोलन की शुरूआत उत्तर भारत में कबीर के माध्यम से हुयी जिसे प्रस्थानत्रयी या उसके विशिष्ट भाष्य्कर्ताओं से किसी भी रूप में जोड़कर नहीं देखा जा सकता (अभिनव भारती,१९९२-९३, पृ0 ३८ ).
रामानंद संस्कृत के पंडित अवश्य थे किंतु ब्रजभाषा में न तो उनकी गहरी पैठ थी न ही उसके प्रति उनका कोई आकर्षण था. आदिग्रंथ में उनका केवल एक पद संगृहीत है किंतु इसके रचयिता रामानंद ही थे, इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं है. उनके नाम से प्राप्त हिन्दी की अन्य छुट-पुट रचनाओं की प्रामाणिकता भी संदिग्ध है. किसी भी जन आन्दोलन से जुड़ने के लिए जनभाषा से जुड़ना और उसके प्रति आश्वस्त होना ज़रूरी है. रामानंद की दृष्टि में संस्कृत एक पवित्र भाषा थी और उसे उच्च वर्ग की भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त थी. कबीर संस्कृत को 'कूप जल' और 'भाखा' (ब्रज भाषा ) को 'बहता नीर' मानते थे. कूएँ के जल तक हर एक की पहुँच नहीं हो सकती, जबकि बहता नीर जन-जन तक पहुँचता है. संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा की तुलना में जनभाषा की श्रेष्ठता घोषित करने का साहस उसी में हो सकता है जो जन भावना से जुडा हो. यह साहस कबीर में था, रामानंद में नहीं था. वैष्णववादी समीक्षक बार-बार प्रचारित करते रहे हैं कि "भक्ति आन्दोलन के झंडे पर जो नारा लिखा हुआ था "जाति पाति पूछै नहि कोई / हरिको भजै सो हरि का होई" उसके सम्बन्ध में प्रसिद्ध है कि उसके रचयिता स्वयं रामानंद थे." सच तो यह है कि 'प्रसिद्ध है,' 'कहा जाता है,' 'सुनने में आया है' 'कहीं पढा था' 'लोक मान्यता यह है', वाली वैष्णववादी शैली अपनी प्रकृति से ही शोध-विरोधी है.
डॉ. धर्मवीर की पुस्तक 'कबीर के आलोचक' की इस अवधारणा ने कि 'ब्राह्मणवादी समीक्षकों ने कबीर के दर्शन और सामजिक संदेश के प्रति तनिक भी सम्मान नहीं बरता. उन्होंने कबीर की नहीं बल्कि कबीर के भीतर रामानंद को बैठाकर उसकी प्रशंसा की है" ( कबीर के आलोचक, वाणी प्रकाशन दिल्ली,भूमिका भाग ), पं0 विष्णुकांत शास्त्री से लेकर मैनेजर पांडे तक को तिल्मिला दिया. यह जानते हुए भी कि हिन्दी आलोचकों की पहचान अभी तक ब्राह्मण, ठाकुर या वैश्य के रूप में नहीं की गई है, डॉ. धर्मवीर की पहचान दलित लेखक के रूप में की गई और उनकी आलोचना को 'दलित विमर्श' का नाम देने का प्रयास किया गया. डॉ. धर्मवीर पर यह आरोप लगाया गया कि 'उनके पास अपनी मान्यता को स्थापित करने के लिए न कोई प्रमाण है, न कोई युक्ति. उसके लिए वे केवल अपनी भावना और आवेश का सहारा लेते हैं."(डॉ. नंदकिशोर नवल, कसौटी त्रैमासिक, प्रवेशांक ) वस्तुतः तर्क, प्रमाण और युक्ति की आवश्यकता उसे पड़ती है जो तर्क, प्रमाण और युक्ति को स्वीकार करना चाहता हो. डॉ. धर्मवीर ने वही शैली अपनाई है जो लगभग डेढ़ सौ वर्षों से हिन्दी के वैष्णववादी आलोचकों की विशिष्ट शैली रही है. डॉ. धर्मवीर की बातें भी यदि उनकी विचारधारा के लोग पीढी-दर-पीढी वैष्णववादी आलोचकों की तर्ज़ पर बार-बार दुहराते रहेंगे, तो उन्हें भी एक दिन वैसी ही मान्यता प्राप्त हो जायेगी जैसी निराधार और तर्क-विरोधी होते हुए भी इस तर्क को मान्यता दी जा रही है कि " रामानंद के सत्संग से कबीर में वैष्णव धर्म की विशेषताएं आयीं." यदि वैष्णव मतावलंबी इस मन गढ़त वक्तव्य से संतोष का अनुभव कर सकते हैं , तो दलित चेतना से जुड़े एक बड़े वर्ग को डॉ. धर्मवीर के वक्तव्यों से संतोष क्यों नहीं प्राप्त हो सकता ?
डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी की अवधारणा है कि "रामानंद के प्रधान उपदेश 'अनन्य भक्ति' को कबीर ने शिरसा स्वीकार कर लिया था. बाकी तत्वज्ञान को उन्होंने अपने सन्सकारों, रूचि और शिक्षा के अनुसार एकदम नवीन रूप दे दिया था."( कबीर, राजकमल प्रकाशन दिल्ली, 1973, पृ0 110 ). यहाँ दो बातें विशेष रूप से विचारणीय है. एक तो यह कि रामानंद से पहले क्या उत्तरी भारत में 'अनन्य भक्ति' का कोई स्वरूप स्पष्ट नहीं था ? और दूसरे यह कि जिस तत्वज्ञान को कबीर ने नवीन रूप देने का प्रयास किया था क्या वह नवीन रूप उत्तरी भारत में परंपरागत रूप से विद्यमान नहीं था. ?
डॉ. द्विवेदी वैष्णव चिंतन की चौहद्दियों से बाहर निकलकर यदि अन्य चिंतन पद्धतियों पर भी विचार कर लेते तो उन्हें इस तथ्य का पता चलता कि सूफियों के मध्य 'अनन्य भक्ति' पर प्रारम्भ से ही बल दिया जाता रहा है. बसरे की राबिया ने जो आठवीं शताब्दी ई० में विद्यमान थीं अनन्य प्रेम में अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया. उनकी प्रार्थना सूफी चिंतकों के मध्य सदैव लोकप्रिय बनी रही कि "हे नाथ ! इहलोक का सुख अपने शत्रुओं को प्रदान कर परलोक का सुख अपने मित्रों को दे. मेरे लिए तो तू ही पर्याप्त है. यदि मैं तेरी उपासना तेरे लिए करती हूँ तो अपने जमाल का वह शेष अंश जो तूने मुझे अभी तक नहीं प्रदान किया है, उसे भी प्रदान कर दे." (फरीदुद्दीन अत्तर, तज़किरतुल-औलिया, बंबई पृ0 39-48 )
प्रख्यात सूफी कवि बायजीद बिस्तामी (मृ0 874 ई0 ) ईश्वर के प्रति अपने अनन्य-प्रेम की मस्ती एवं उन्माद के लिए विशेष उल्लेख्य हैं. वे अबू अली कंदर के शिष्य थे जिन्हें एक सिद्ध पुरूष स्वीकार किया जाता था. बायजीद के एकत्ववादी चिंतन पर आर.सी.ज़हेनर जैसे विद्वानों ने उपनिषदों का प्रभाव देखने का प्रयास किया है. ( हिंदू एंड मुस्लिम मिस्तिसिज्म, पृ0 90 तथा डॉ. यश गुलाटी, सूफी कविता की पहचान, पृ0 64 ) बायजीद की भक्ति में द्वैत का कोई स्थान नहीं था. वे प्रेम को ईश्वर का रूप स्वीकार करते थे और उसके अनादि और अनंत होने पर उनका पूर्ण विशवास था. लोक सेवा का महत्त्व उनकी दृष्टि में हज से भी कहीं अधिक था. बायजीद बिस्तामी का कहना था कि 'परमात्मा ने एक बार मुझे उठाया और अपने सम्मुख बिठा लिया.फिर मुझसे कहा -'अरे बायजीद ! मेरी सृष्टि तुझे देखने के लिए उत्सुक है'. मैंने उत्तर दिया-' मुझे अपने एकत्व में सज्जित करो और अपने स्वत्व में लपेट लो ताकि जो भी देखें, कहें कि हमने तुम्हें अर्थात परमात्मा को देख लिया.' बायजीद निःस्वार्थ ईश्वर प्रेम को भक्ति की पराकाष्ठा मानते थे और प्रेमी का प्रेमी में विलयन उनके एकत्व चिंतन का नाभीय बिन्दु था. कबीर इसी भक्ति के पक्षधर हैं जिसमें "प्रेमी से प्रेमी मिलै, सब बिष अमृत होया" का आभास हो सके. इसमें "रहा कबीर हिराय" की स्थिति भी देखी जा सकती है जहाँ भक्त परम सत्ता के साथ एक-मेक हो जाता है.
डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने यह तो रेखांकित किया है कि 'रामानंद से जिस अनन्य भक्ति को पाकर कबीर उनके कृतज्ञ हो गए, वह भक्ति योगियों के पास नहीं थी, सहजयानी सिद्धों के पास नहीं थी, कर्मकांडियों के पास नहीं थी, पंडितों के पास नहीं थी, मुल्लाओं के पास नहीं थी, काजियों के पास नहीं थी' ( कबीर, पृ0 147-148 ). किंतु यह नहीं बताया कि सूफी भक्तों और दरवेशों के पास थी या नहीं ? डॉ. द्विवेदी अच्छी तरह जानते थे कि स्वयं रामानंद ने सूफी भक्तों के अनन्य प्रेमसे प्रभावित होकर इसे विशेष मान्यता दी थी. डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल की तो स्पष्ट मान्यता थी और डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी इस से भली प्रकार परिचित भी थे कि "सूफी मत की विशेषता केवल तपोमय जीवन न होकर परमात्मा के प्रति अनन्य प्रेम भावना है जिस से समस्त संसार उन्हें परमात्मामय मालूम होता है."(हिन्दी काव्य में निर्गुण सम्प्रदाय, पृ0 81 ).
विचारणीय है कि वैष्णववादी समालोचकों ने जैनों, बौद्धों, नाथ्योगियों और सूफियों के प्रति कभी अच्छे भाव अपने मन में विकसित नहीं होने दिए. बौद्धों के प्रति उनकी घृणा के तो स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं (द्रष्टव्य है 'मृच्छकटिक' नाटक का सातवाँ आठवां अंक ). बौद्ध धर्मके उन्मूलन के प्रयास में शंकर, कुमारिल और उदयन की भूमिकाएँ सहज ही रेखांकित की जा सकती हैं (आब्स्क्योर रेलिजास कल्ट्स, पृ0 33-34 ).ब्रह्मण धर्म ने सातवीं शताब्दी ईस्वी से ही यह मान्यता स्थापित करने का प्रयास किया कि ब्राह्मणेतर सभी चिंतन पद्धतियाँ, ब्राह्मण धर्म विरोधी हैं और उन्हें देश की मुख्य धरा में कोई स्थान नहीं दिया जा सकता. एनी देशों में भी धर्माचार्यों और धर्म पुरोहितों ने वाही मार्ग अपनाया जो भारत में ब्राह्मण धर्माचार्यों का मार्ग था. फलस्वरूप विश्व इतिहास में असहमतिवादी चिंतकों (Dissenters) की एक लम्बी और स्वस्थ परम्परा विकसित हुई. यह परम्परा धार्मिक संकीर्णताओं से जन्मी रूढिगत अलगावपरक वैचारिकता के प्रति एक असहमति-मूलक आक्रोश रखती थी और उदारवादी, संवेदनशील मानवतावादी दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा के लिए प्रतिबद्ध थी. भारत में सिद्धों,नाथ्योगियों तथा संतों को इसी असहमतिवादी चिंतकों की परम्परा में मूल्यांकित किया जाना चाहिए. अरब ईरान आदि इस्लामी देशों में यह असहमतिवादी चिन्तक शरीअत की रूढियों में जकडे संकीर्ण मुल्लाओं, काजियों के समक्ष सूफियों के विभिन्न सम्प्रदायों, कलंदरों और दरवेशों के रूप में उभरे. कबीर को असहमतिवादियों की यह दोनों परम्पराएं विरासत में मिली थीं.
वस्तुतः असहमतिमूलक चिंतन प्राचीन धर्मशास्त्रों और तथाकथित पवित्र आलेखों को अपने अनुभवजन्य विवेक एवं अध्यात्मज्ञान के प्रकाश में स्वयं व्याख्यायित करता है और छोटे-बड़े, ऊंच-नीच की विभाजक रेखाओं को मिटाकर ईश्वरीय प्रेम के किरण-बिन्दु से ईश्वरीय सृष्टि के प्रत्येक प्राणी को सामान धरातल पर जोड़ता है. असहमतिवादियों और धर्मपुरोहितों के बीच सदैव एक खायीं पायी गई और यह खायीं एकतरफा थी जो मुख्यधारा में प्रतिष्ठित धर्म के ठेकेदारों के मन में इतनी गहरी हो चुकी थी कि असहमतिवादियों का अस्तित्व भी सहन करने के लिए आमादा नहीं थी. असहमतिवादी होने का स्पष्ट अर्थ था भद्र तथा कुलीन, धर्मनियन्त्रित समाज की दृष्टि में निकृष्ट बन जाना. पुरोहितवादी दृष्टि मूल रूप से आक्रामक थी. आक्रामक इसलिए थी कि उसके अन्तश्चेतन में अपने सामजिक, राजनीतिक और धार्मिक वर्चस्व का तथा स्वयं को ईश्वर के अधिक निकट समझने का अंहकार पूरी तरह जड़ें जमा चुका था.
इंग्लैंड में असहमतिवादियों (Dissenters) को उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक विवाह के पंजीकरण का अधिकार नहीं था और वे अपने मुर्दे परंपरागत चर्च के कब्रिस्तानों में नहीं दफना सकते था. विक्टोरियन युग तक वहाँ असहमतिवादियों में मित्र समाज (क्वेकर्स), प्रार्थना समाज (कान्ग्रिगेशानिस्ट्स) और यूनीटेरियन विद्यमान थे. भारत में भी असहमतिवादियों की एक लम्बी परम्परा पायी गई जिसमें सिद्धों और नाथों का प्रभाव पूर्व मध्यकाल तक आंशिक रूप से ही सही, अपनी चुनौतियाँ बनाए हुए था. भारतीय मुस्लिम असहमतिवादियों में सूफी चिंतन की मुख्य धारा से फूटने वाली अनेक धाराएं विकसित हुईं. यहांतक कि 'हुलूली' तथा 'वुजूदी' सूफियों को काफिर तक घोषित कर दिया गया. अबू सईद अबिल्खैर तथा मसऊद बक इत्यादि वुजूदी सूफियों की रचनाएं पध्हना तक वर्जित था. इन परम्पराओं के पास पाखंडों के विरोध में खड़े होने की शक्ति थी, धर्मशास्त्र सम्मत मुख्यधारा से असहमति का साहस था और संकीर्ण रूढिवादी चिंतन के प्रति सशक्त आक्रोश था. जिस प्रस्थानत्रयी के साथ कबीर को जोड़ने का प्रयास किया जाता है उसमें असहमतिमूलक चिंतन का सर्वथा अभाव था. वैष्णववादी समालोचकों को स्वीकार कर लेना चाहिए कि कबीर सूफी असहमतिवादी चिंतकों की परम्परा के ही एक ठोस स्तम्भ थे.
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