पत्र-पत्रिकाओं की भीड़ में कविता लोकप्रियता का मोह समेटे हुए जनमानस के जिस स्तर को उद्वेलित कर रही है और जिस दिशा में चेतना-मुक्त अवस्था में आगे बढ़ रही है, वह निश्चय ही चिंता का विषय है। हिन्दी कविता से उसकी लयात्मकता तो पहले ही छिन चुकी थी, शब्द-विन्यास की फूहड़ प्रवृत्ति ने उसका ओज भी विलुप्त कर दिया है. गाँव-देहात से आए लेखक भाषा की पकड़ से पहले ही लेखन में सब कुछ अर्जित कर लेना चाहते हैं. कदाचित इसी लिए अन्य भाषा प्रांतों से आए हिन्दी लेखक हिन्दी प्रदेश के लेखकों की तुलना में कहीं अच्छा लिख रहे हैं। कोई लेखन उस समय तक स्तरीय नहीं हो सकता जब तक उसमें भाषा के संस्कारों के साथ गहरी अंतरंगताकी प्रतीति न हो । वर्तमान हिन्दी कविता संस्कार-मुक्त भी है और दिशा-विहीन भी। .
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