पाँच दशक के अंतराल को
महानगर की भीड़ में पीछे छोड़ आया हूँ।
गाँव की मिट्टी में बचपन कीभीनी खुशबू खोज रहा हूँ ।
ईंट के भट्ठों की चिमनी के ,काले दैत्याकार धुएं को
धान के खेतों की हरियाली,
गुम-सुम, थकी-थकी आंखों से
खेतों की मेड़ों के सरगम,
सहमे-सहमे,
परिचित-परिचित से चेहरों सेखोयी पहचानों को फिर से मांग रहे हैं।
गाँव के पोखर,बंस्वारी के कट जाने सेचिडियों की मीठी आवाजों में शामिल,
दर्द के रिश्ते भूल गए हैं.
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