मंगलवार, 26 फ़रवरी 2008

शरीक न होने का अहसास।

वहाँ गुलाबी हवाओं के पैरहन की खुशबू की /

इत्र-बेजी से हैं मुअत्तर/

मगन-मगन रस-भरी फिजायें /

वहाँ सुनहरे लिबास पर/

दीदाजेब याकूत से जड़े जेवरात/

खुशरंग तितलियों के सेहर से /

अपने दिलों में हलचल मचा रहे हैं,/

वहाँ नहा-धो के सुबह से ही /

शागुफ्ता खुर्शीद की बरहना बदन शुआयें /

हरे-भरे नग्मा-रेज़ अश्जार की फसीलों पे/

बे-झिझक रक्स कर रही हैं/

वहाँ तबुस्सुम-मिजाज, खुश-जौक, जिंदा-अफराद/

खुश-खिरामी के साथ तकरीब-ऐ-बा-सआदत की /

मह्फिले-पुर-हयात में महवे-गुफ्तुगू हैं/

वहाँ मेरी ज़िंदगी का एक बावकार टुकडा/

है मर्कज़े-बज्मे-शादमानी /

वहाँ किताबे-हयात पर वक़्त लिख रहा है/

मुहब्बतों से भरे दिलों की नई कहानी ।/

यहाँ मैं अपने पलंग पर एक लिहाफ में/

लेटा-लेटा हर लहजा सोचता हूँ/

वहाँ अगर आज मैं भी होता/

तो ज़िंदगी अपनी सुर्खरूई के देखती ताब्नाक जलवे ।

कोई टिप्पणी नहीं: