रविवार, 27 जुलाई 2008

पसंदीदा ग़ज़लें / अदीम हाशमी

[ 1 ]
गम के हर इक रंग से मुझको शनासा कर गया
वो मेरा मोहसिन मुझे पत्थर से हीरा कर गया
हर तरफ़ उड़ने लगा तारीक सायों का गुबार
शाम का झोंका, चमकता शह्र मैला कर गया.
चाट ली किरनों ने मेरे जिस्म की सारी मिठास
मैं समंदर था वो सूरज मुझको सहरा कर गया.
एक लम्हे में भरे बाज़ार सूने हो गए,
एक चेहरा सब पुराने ज़ख्म ताज़ा कर गया.
रात भर हम रौशनी की आस में जागे 'अदीम'
और दिन आया तो आंखों में अँधेरा कर गया.
[ 2 ]
फासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था.
सामने बैठा था मेरे, और वो मेरा न था.
ख़ुद चढा रक्खे थे तन पर अजनबीयत के गिलाफ
वरना कब इक दूसरे को हमने पहचाना न था.
ये सभी वीरानियाँ उसके जुदा होने से थीं,
आँख धुंधलाई हुई थी, शह्र धुंधलाया न था
सैकड़ों तूफ़ान लफ़्जों के दबे थे ज़ेरे-लब
एक पत्थर था खामोशी का कि जो हिलाता न था.
याद करके और भी तकलीफ होती थी 'अदीम'
अब सिवाए भूल जाने के कोई चारा न था.
[ 3 ]
शोर सा एक हर एक सिम्त बपा लगता है.
वो खमोशी है कि लम्हा भी सदा लगता है.
कितना सकित नज़र आता है हवाओं का बदन
शाख पर फूल भी पथराया हुआ लगता है.
चीख उठती हुई हर घर से नज़र आती है
हर मकां शह्र का, आसेब-ज़दा लगता है.
आँख हर रह से चिपकी ही चली जाती है,
दिल को हर मोड़ पे कुछ खोया हुआ अगता है.
सोचता हूँ, तो हर इंसान पुतानी सूरत
देखता हूँ तो हर इक शख्स नया लागता है.
देर से ढूंढ रहा हूँ फ़क़त इक शब् की पनाह
साफ़ इनकार हर इक दर पे लिखा लगता है.
जान तू किसके लिए अपनी गंवाता है 'अदीम'
खूबसूरत है वो, लेकिन तेरा क्या लगता है.
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1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

फासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था.
सामने बैठा था मेरे, और वो मेरा न था.

--वाह! आनन्द आ गया. अदीम हाशमी जी को पढ़वाने का आप को बहुत शुक्रिया.